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३८० : जैन साहित्यका इतिहास
अत यह स्पष्ट है कि अमितगतिने डड्ढाके पचसग्रहके प्रत्येक कथनको अपनाया है । उद्धृत पद्यो तकको भी अपनाया है ।
यद्यपि अमितगतिने अपना पञ्चसग्रह गोम्मटसारके पश्चात् रचा क्योकि उसमें उन्होने गो० सा० का उपयोग किया है । तथापि प्रसंगवश उनका परिचय पूर्वमे दिया जाता है क्योंकि उनके स० प० स० का अलग से परिचय देना
।
अनावश्यक है ।
स० पं० स० के रचयिता अमितगति'
विक्रमको ग्यारहवी शताब्दीमें अमितगति नामके एक आचार्य हो गये है । उन्होने वि० स० १०७३ में अपना संस्कृत पञ्चसग्रह रचकर समाप्त किया था । यह माथुर सघके थे । देवमेन सूरिने अपने दर्शनसारमें माथुरसघ को पाँच जैनाभासोमे गिनाया है । माथुरसघ को नि पिच्छिक भी कहते थे, क्योकि इस सबके मुनि मोरकी या गोकी पिच्छि नही रखते थे ।
अमितगतिने अपनी धर्म परीक्षाकी प्रशस्तिमे अपनी गुरु परम्परा इस प्रकार दी है -- वीरसेन, उनके शिष्य देवसेन, देवसेनके शिष्य अमितगति ( प्रथम ), उनके नेमिपेण, नेमिपेणके माधवसेन और उनके शिष्य अमितगति ।
तथा अमितगतिकी शिष्य परम्पराका पता अमर कीर्तिके छक्कमोवएससे लगता है जो इस प्रकार है-अमितगति, शान्तिपेण, अमरसेन, श्रीषेण, चन्द्रकीर्ति और चन्द्रकीर्तिके शिष्य अमरकीर्ति ।
प० विश्वेश्वरनाथ रेऊके कथनानुसार अमितगति वाक्पतिराज मुजकी सभाके एकरत्न थे । अपने ग्रन्थोमे उन्होने भुज और सिन्धुलका उल्लेख किया है । ये दोनो मालवेके परमार राजा थे और उनकी राजधानी धारा थी । अमितगतिने वि०स० १०५० में पौष शुक्ल पचमीके दिन अपना सुभाषित रत्न सन्दोह समाप्त किया था, उस समय राजा मुंज पृथ्वीका पालन करते थे ।
अमितगति बहुश्रुत थे । उन्होने विविध धार्मिक विपयो पर ग्रन्थोंका निर्माण किया है । उनके सब उपलब्ध ग्रन्थ संस्कृतमें है । वि० स० १०५० में उन्होने सुभाषित रत्न सन्दोह नामक ग्रन्थका निर्माण किया। इसमें सासारिक विषय निराकरण, माया अहंकार निराकरण, इन्द्रिय निग्रह, स्त्री गुणदोप विचार आदि
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देखो - 'जै० 10 सा० इ० ' में पृ० २७५ पर 'अमितगति' शीर्षक निबन्ध | २ 'समारूढे पूतत्रिदशवसति विक्रमनृपे । सहस्र वर्षाणा प्रभवति हि पचाशदधिके ॥ समाप्ते पचम्यामवति धरणी मुंजनृपतो, सिते पक्षे पौषे बुधहितमिदं शास्त्रमनधम् ॥९२२ - सुभा० २० |