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३५८ : जैनसाहित्यका इतिहास और चचित विषयके सम्बन्ध कामिको औच सैद्धान्तिकोमें जो मतभेद है उनका भी यथा स्थान निर्देश किया गया है । ___यद्यपि पूरी चूणि प्राकृत गापाबद्ध है किन्तु कही-कही सस्कृत वाक्य भी पार्य जाते हैं किन्तु उनको पिरलता है । प्रारम्भिक गाथाको उत्थानिकामें चूणिकारने सम्बन्धादिका कथन करने के लिए एक संस्कृत आर्या उद्धत की है
'संज्ञा निमित्तं कर्तार परिमाण प्रयोजन ।।
प्रागुक्त्वा सर्वतयाणा पश्चाद् वक्ता तं वर्णयेत् ।।' प्रथम गाथा में कहा है कि 'दृष्टिवादसे कुछ गाथाए कहूगा'। चूर्णिकारने दृष्टिवादका परिचय कराते हुए उसके पाच भेदोमें से दूसरे पूर्व अग्रायणीयके अन्तर्गत पचम वस्तुके वीस पाहुडोमेंसे चतुर्थ कर्मप्रकृति प्राभृतसे इस ग्रन्थको उत्पत्ति वतलायी है। चतुर्थ कर्मप्रकृति प्राभूतके चोवीस अनुयोगद्वारोके नाम गिनाकर उनमें से छठे अनुयोगद्वार बन्धनके चार भेद-बंध, बधक, वन्धनीय और वन्ध-विधानमें से बन्धविधानसे प्रकृत शतकको उत्पति बतलाई है। इससे सूचित होता है कि चूणिकारको इस सव उपपत्तिका परिचय था।
इसी तरह ग्रन्यमें वर्णित योग, उपयोग जीवसमास और गुणस्थानोंका चूणिमें अच्छा विवेचन किया गया है जो सक्षिप्त होते हुए भी बहुमूल्य है । गाथा ३८-३९की चूर्णिमें आठो कर्मों और उनकी उत्तरप्रकृतियोका विवेचन भी सुन्दर है । आगे चारो बन्धोके कथन में भी चूर्णिमें बहुत विषय भरा हुआ है और चूणिकारने 'गागरमें सागरकी कहावत को चरितार्थ किया है।
इस चूर्णिके कर्ताका भी नाम अज्ञात है। किन्तु खभातके शान्तिनाथ भण्डारसे प्राप्त शतक चूणिके अन्तमें उसे श्वेताम्बराचार्य श्री चन्द्रमहत्तरकी कृति बतलाया है।
किन्तु पचसंग्रहके साथ चूर्णिकी तुलना करनेसे कोई वात प्रकट नही होती जिसके आधारपर यह निस्सन्देह रूपसे कहा जा सके कि यह चन्द्रषि महत्तरकी कृति है।
१. प्रथम तो चूर्णिका उपोद्घात और पच-सग्रहका उपोद्घात ही भिन्न है। जहा चूणिमें सज्ञा, निमित्त आदिका कथन ग्रन्थके प्रारम्भ में आवश्यक बतलाया है वहा पञ्चस० के प्रारम्भमें मंगल, प्रयोजन, सम्बन्ध और अभिधेयका कथन करके व्याख्या क्रमके ६ भेद किये है और उनके सम्बन्धमें 'उक्त च' रूपमें यह श्लोक उद्धृत किया है।
सहिता च पद चैव पदार्थः पदविग्रह । चालना प्रत्यवस्थानं व्याख्या तन्त्रस्य षड्विधा ॥१॥'