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अन्य कर्मसाहित्य ३५७ और अपने गुरु आदिके सम्बन्धमें कोई निर्देश नही किया। सित्तरीकी प्रतियोके अन्तमें जो एक गाथा पाई जाती है । ___गाहग्गं सयरीए चदमहत्तरमयाणुसारीए'
उसमें 'चन्द्रमहत्तर' नाम आता है। खंभातके श्री शान्तिनाथभण्डारमें जो शतकचूणिकी प्रति है उसके अन्तिम पत्रके अन्तमें यह वाक्य लिखा है-'कृतिराचार्य श्रीचन्द्रमहत्तरशिताम्बरस्य' ।
इन सब उल्लेखोसे ग्रन्थाकारका पूरा नाम श्री चन्द्रपि महत्तर प्रमाणित होता है किन्तु उनके कुलगुरु समय आदिके सम्बन्धमें कोई जानकारी प्राप्त नही होती।
साधारणतया उन्हें एक बहुत प्राचीन आचार्य माना जाता है । 'जनसाहित्य नो इतिहास, (पृ० १३९) में उन्हें कर्मप्रकृतिकारके पश्चात् रखते हुए लिखा है-'चन्द्रपि महत्तर थयाते घणा प्राचीन समयमा थया जणाय छे । ते प्राय आ समयमा थया हशे ऐम गणी अही तेमनो उल्लेख कर्यो छ' ।
किन्तु मुनिश्री पुण्यविजयजीने 'पञ्चमकर्मग्रन्थ और पष्ठम कर्मग्रन्थ' का अपनी प्रस्तावना ( पृ० १५)में 'चन्द्रपि सप्ततिकाके रचयिता नही है इस बातको स्पष्ट करते हुए उनके सम्बन्धमें दो बातें मुद्दे को लिखी है। एक-यदि सप्ततिकर्ता और पचसग्रहकर्ता आचार्य एक ही होते तो भाष्यकार चूणिकार आदि प्राचीन ग्रन्थकारोंके ग्रन्थोमें जैसे शतक, सप्ततिका, कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थोका उल्लेख साक्षी रूपसे मिलता है वैसे पञ्चसंग्रह जैसे प्रासादभूत ग्रन्थके नामका उल्लेख भी जरूर मिलता। परन्तु ऐसा उल्लेख कही भी देखनेमें नहीं आता। दूसरे मुद्दे की बात मुनिजीने यह लिखी है कि 'महत्तर' पद तथा गर्षि, सिद्धर्षि, पाश्वर्षि, चन्द्रषि आदि जैसे ऋपि पदान्त नाम सामान्यतया पिछले समय के होने चाहिए। आचार्य चन्द्रषिके समयका विचार करते समय दोनो मुद्दे नही भुलाये जा सकते।
इनके समयका विचार करनेसे पूर्व वहा शतकचूणि और सप्ततिचूणिका परिचय कराया जाता है। एक अन्य शतक'चूणि . शतक ग्रन्थका परिचय पहले कराया जा चुका है। उसीपर प्राकृत भाषामें यह चूणि रची गयी है । चूणिको देखनेसे प्रकट होता है कि उसका रचयिता कोई बहुश्रुत विद्वान होना चाहिए, क्योकि चूर्णिमें उद्धृत गाथाओका बाहुल्य है । १-राजनगरस्थ वीर समाजकी ओरसे प्रकाशित शतक प्रकरणका इसचूणिके साथ प्रकाशन
हुआ है।