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अन्य कर्मसाहित्य : ३५९
२ शतक गाथा १४ की चूर्णिमें मिथ्यात्वके अनेक भेद बतलाये हैं-एकान्त, वैनयिक, अज्ञान, सशय, मूढ और विपरीत । अथवा क्रियावाद, अक्रियावाद, वैनयिकवाद और अज्ञानवाद । तथा नीचे लिखी दो गाथाए उद्धृत की है
'असियसय किरियाण अकिरियवाईण जाण चुलसीई । अन्नाणि य सत्तट्ठी वेणइयाण च बत्तीस ॥" जावइया णयवाया तावइया चेव होति परसमया ।
जावइया परसमया तावइया चेव मिच्छत्ता ।' उधर पच'सग्रहमें मिथ्यात्वके पाच भेद गिनाये है-अभिगृहीत, अनभिगृहीत, आभिनिवेशिक, साशयिक और अनाभोग । तथा व्याख्यामें 'च' पद से सूचित मिथ्यात्व के भेदोंका सूचन करनेके लिए 'सेसटा तिन्नीसया' और 'जावइया वयण पहा' गाथाशोका निर्देश किया है जो बतलाता है कि चूर्णिमें उद्धृत इन गाथाओसे ये दोनो गाथाए भिन्न है। .
३ शतक गा० ५२-५३ की चूणिमें उत्तर प्रकृतियोके स्थितिबन्धका कथन विस्तारसे किया है । उसमें तीर्थङ्कर और आहारकद्वयकी जघन्यस्थिति कर्मप्रकृति के अनुसार, अन्त. कोटी-कोटी सागर ही बतलायी है। किन्तु पचसंग्रहमें तीर्थङ्कर प्रकृतिको अन्तर्मुहूर्त बतलायी है।
चूणिमें वर्णादिचतुष्ककी उत्कृष्टस्थिति बीस कोडाकोडी सागर बतलायी है और पचसग्रह में पृथक् २ बतलायी है । और भी उल्लेखनीय अन्तर स्थितिबन्धके सम्बन्धमें है।
अत इन बातोको लक्ष्यमें रखनेसे यह निर्विवाद रूपसे नही माना जा सकता कि शतकचूणिके कर्ता और पचसग्रहके कर्ता एक व्यक्ति है ।
शायद कहा जाये कि शतक कर्मप्रकृतिकारकी रचना है इसलिए चूणिकारने उसमें कर्मप्रकृतिके अनुसार ही स्थितिका प्रतिपादन किया होगा। किन्तु ऐसा कहना भी उचित नही है क्योकि चूर्णिकारने कर्मप्रकृतिका भी अनुसरण नही किया । कर्मप्रकृति के अनुसार प्रत्येक वर्गकी भी उत्कृष्ट स्थितिमें मिथ्यात्वकी
१ 'आमिग्गहियमणमिग्गहिच अभिनिवेसिय चेव । ससइयमणामोगे मिच्छत्त पचहा
होइ ॥२॥ २ सुक्किलसुरभी महुराण दस उ तह सुम चउण्ह फासाण । अठाइज्ज पवुड्डी अविल ___ हालिद पुव्वाण ॥३३॥ श्वे०५० स० भा० १, पृ० २१९ ।। ३. 'वग्गु क्कोस ठिण मिच्छतुक्कोसगेण ज लद्ध। सेसाण तु जहन्ना पल्लासखिज्जभागूण
॥ "७९."-क० प्र०, बन्धन-।