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________________ ३५४ जनमाहित्यका इतिहास ग्रन्थकारके द्वारा निर्दिष्ट ग्रन्थ पराग्रहमारने अपने गलग्रन्थगे 'सगगाई पंचगया' करके गतक आदि जि पांच अन्योका संग्रह गरनेकी प्रतिमा की है उनमे शतको शिवाय पोका न नही प्रतलागा, यह हम ऊपर लिए आये है। फिर भी पचसंग्रहके पर्यवेक्षणमे र निश्चित है कि दोप गार गन्योमगे दो अवश्य ही गर्मप्रकृति और गप्ततिका है पदोका प्रश्न विवादनम्न है। मलयगिरिके अनुमार ये कमायपाहम और सत्क हैं । कमायपाहुडके सम्बन्ध में कोई ऐमा उल्लेरा हमारे देयने में नही आया जिस आधारपर उगको निधि या निषेधपर जोर दिया जामफे। किन्तु सत्कर्मक गम्मन्यतो यह कहा जा गगता है कि पनमग्रहकारको द्वारा निर्दिष्ट पांच ग्रन्योमें उग स्थिति सदिग्ध है गयोकि पचसग्रहकारने उसके गतके मामने कर्मस्तवका गत मान किया है । तथा एक म्यानपर वोपावृत्तिमें शर्मस्तवका उल्लेस भी किया है मत पचसग्रहकार द्वारा सगृहीत पांच ग्रन्थोमे एक कर्मस्तव अवश्य होन नाहिए। ___ सप्ततिका और कर्मस्तवके सिवाय पचगंगहकारने अपनो वृत्तिमें प्रज्ञापन और जीवममासका उल्लेख किया है । दोनो ही प्राचीन ग्रन्य है और उनमें प्रकर ग्रन्यमें चचित कुछ विषय भी पाये जाते हैं। फिर भी पांच गन्योमें उनके होने की सम्भावना कम है। पञ्चसग्रहकारका अन्य कामिको तथा सैद्धान्तिकोसे मतभेद पंचराग्रहकारने यद्यपि अपने ग्रन्थ पंचसगहमें पांच ग्रन्योका संकलन किया है तथापि उन्होने एकान्त रूपमे अनुमरण नही किया । अनेक विपयोमें उनका अन्य कार्मिको तथा सैद्धान्तिकोमे मतभेद प्रकट है । नीचे उसीको बतलाया जाता है। १ पचसग्रह (गा० १७) सम्यमिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें दस योग बतलाये है । मलयगिरिने उसको टीकामें यह शका उठायी है कि वैक्रिय लन्धि सम्पन्न १. 'कर्मस्तवप्रणेता तु क्षीणमोहेपि हिचरमममय यावनिद्रामचलयोरुदयमिच्छति । तथा चोक्त कर्मस्तवे-'निदापयलाण ता खीणदुचरिममि उदयवोच्छेओ' । इति । ततस्तन्मतेन निद्राप्रचलयोरपि क्षीणमोहगुणस्थानकद्विचरमसमय यावदुदओ वेदितव्य ।प० स०, मलयटी०, भा० १, पृ० १९५। 'एतच्चाचार्यण कर्मस्तवाभिप्रायेणोक्तम् सत्कर्मग्रंथाघभिप्रायेणे तु क्षपकक्षीणमोहाना चतुमिवोदयो न पन्चानामपि । तदुक्त सत्कर्मग्रन्थे–'निदादुगस्स उदओ खीणगखवगे परिचज्ज ।' -५०, स. मलयटी०, भा० २, पृ० २२७ । २. 'एवमेकादशभङ्गा सप्ततिकाकारमतेन कर्मस्तवकारमतेन पन्चानामप्युदयो भवति' प० स०, भा॰ २, पृ० २०७। '
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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