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अन्य कर्मसाहित्य : ३५५ पर्याप्त मनुष्य तिर्यञ्चो के सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें विक्रिया होती है उसके पहले वैक्रियमित्र होता है वह यहां क्यो नही कहा' । उत्तर दिया गया है कि वहां विक्रिया नही होती इसलिए अथवा अन्य किसी कारणसे आचार्यने तथा दूसरोने नही माना यह हम नहीं जानते क्योकि उस प्रकारके सम्प्रदायका अभाव है।'
दिगम्बर परम्परामें भी तीसरे गुणस्थानमें दस योग बतलाये है और उक्त शकित विक्रियाको स्वीकार नही किया है। _२ पञ्चसग्रह ( गा० ९) में उपयोगका कथन गुणस्थानोमें करते हुए पहले और दूसरे गुणस्थानमें पांच ही उपयोग बतलाये है । शतक गा० ४१ में भी . पांच ही उपयोग बतलाये है । यही कार्मिकोका मत है जो दिगम्बर परम्परामें भी मान्य है । किन्तु प्रज्ञापनामें विभङ्गावधिके साथ अवधिदर्शन भी बतलाया है। पचसग्रहकारकी कुछ बातोका विरोध मलयगिरिने स्पष्ट रूपसे अपनी टीकामें किया है। यथा
३ गाथा ४६ से ५१ तक पचसग्रहकारने जीवोकी कायस्थितिका कथन किया है । यह कायस्थिति प्रज्ञापनामें कथित कायस्थितिसे मेल नही खाती । अतः
मलयगिरिने उसे आगम विरुद्ध मान कर अपनी टीकामें प्रज्ञापनाके अनुसार ही कथन किया है। किन्तु यह कायस्थिति षट्खण्डागमके अन्तर्गत जीवट्ठाणके कालानुयोगद्वारमें कथित कायस्थितिसे मेल खाती है ।
४ चतुर्थद्वारकी गाथा १८ में पचसग्रहकारने चौइन्द्रियोके तीनो वेद माने है। मलयगिरिने केवल एक नपु सक वेद ही लिखा है। दिगम्बर परम्पराके अनुसार भी चौइन्द्रियपर्यन्तजीव नपु सकवेदी ही होते है । __ ५ चतुर्थद्वार में ही पञ्चसग्रहकारने उत्तर प्रकृतियोकी जो जघन्य स्थिति बतलायी है वह कर्मप्रकृतिसे मेल नही खाती। दोनोमें अन्तर है। यथा-पञ्चसंग्रहकारने तीर्थङ्कर नामकर्मकी जघन्यस्थिति दस हजार वर्प बतलायी है। तथा आहारकद्विककी जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बतलायी है किन्तु कर्मप्रकृति मादिमें
१ 'इह मूलटीकायामन्यत्र च ग्रन्थान्तरे कायस्थितिरन्यथागमविरोधिनी दृश्यते। ततस्तामु
पेक्ष्य प्रज्ञापनासूत्रानुसारत सूत्रगाथा विवृता । अतएव ग्रन्थगौरवमनादृत्य सर्वत्र
प्रज्ञापनासूत्रमुपादशि-६० स० मलयटी०, भा० १ पृ० ८५। २. पटख०, पु० ४। ३- ५ स० मलय० टी०, भा० १, पृ० १८३ । ४- 'तिरिक्खा सुद्धा
णवुसगवेदा एइ दियप्पहुडि जाव चरिंदियाति ॥१०६।। षट्ख० पु०, पृ० ३४५ । ३ 'इद च किल निद्रापन्चकादारभ्य सर्वाषा प्रकृतीनां जघन्यस्थितिपरिमाणमाचार्येण मतान्तरमधिकृत्योक्तमवसेयम, कर्मप्रकृत्यादावन्यथा तस्यामिधानात् ।'-६० स० मलय यटी०, भा० १, पृ० २२७ ।