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अन्य कर्मसाहित्य : ३५३ चौथे वन्धहेतु द्वार में कर्मवन्धके कारण मिथ्यात्व, अविरति, कपाय और योग तथा उनके भेदोका कथन भगपूर्वक विस्तारसे किया है। चूंकि परीपह भी कर्मोके उदयसे होती है इसलिए अन्तमें परोपहोका भी कथन तीन गाथाओसे किया है । स्वोपज्ञ वृत्तिमें नग्नताका कोई अर्थ सम्प्रदायपरक नहीं किया है जैसा कि मलयगिरि ने अपनी टीका में किया है।
पांचवें वन्यविधि द्वारमें बन्धविधिके साथ ही उदय, उदीरणा और सत्ताका भी कथन किया है क्योकि बद्धफर्मका उदय होता है, और उदयप्राप्त कर्ममें अनुदय प्राप्त कर्मका प्रक्षेपण करनेको उदीरणा कहते है। और जिस कर्मका उदय अथवा उदीरणा नहीं होते वह मत्तामें रहता है । अत वन्धके साथ उदय उदीरणा और सत्ताका कथन किया गया है। अत ये द्वार वडा है इसमें वन्धके चारो भेदोका कथन होनेके साथ ही माय उदय उदीरणा और सत्ताका भी कथन है । इस तरह पचमग्रहके पांचो द्वार समाप्त हो जाते है । और उनके साथ ही ग्रन्यका पूर्वार्ध हो जाता है । ___ उत्तरार्धमें कर्मप्रकृतिमें कथित माठो करणोका स्वरूप प्रतिपादित है। इसके प्रारम्भमें पञ्चसंग्रहकारने श्रुतघरोको नमस्कार किया है। किन्तु उन्होंने यह नही कहा कि मैं कर्मप्रकृतिका कथन करता हूँ। टीकाकार मलयगिरिने प्रथम गाथाको उत्यानिकामें कहा है-'अब कर्मप्रकृति सग्रहको कहना चाहिए । कर्मप्रकृति महान शास्त्रान्तर है । उसे हमारे जैसे अल्पबुद्धि केवल अपनी बुद्धिके प्रभावसे सग्रहीत करनेमें असमर्थ है किन्तु कर्मप्रकृति प्राभूत आदि शास्त्रोके पारगामी विशिष्ट श्रुतपरोके उपदेशकी परम्पराके साहाय्यसे कर सकते है । इसीसे ग्रन्यकारने श्रुतधगेको नमस्कार किया है । ___इसका विषय परिचय करानेको आवश्यकता नही है क्योकि इसकी रचना शिवशर्मप्रणीत कर्मप्रकृति तथा उसकी चूर्णिको सामने रखकर उसीके अनुसार की गयी है । दोनोका मिलान करनेसे यह बात स्पष्ट हो जाती है। अन्तिम भागमें सप्ततिका का सग्रह किया गया है । अत सप्ततिकामें जो विपय प्रतिपादित है वही इसमें भी है।
१ 'नमिऊण सुयहराण वोच्छ करणाणि वधणाईणि।
सकमकरण बहुसो अइदेसिय उदय सतेज ॥१॥ मलयटी०–सम्प्रति कर्मप्रकृतिसंग्रहोऽभिधातव्य । कर्मप्रकृतिश्च शास्त्रान्तरं महद्धि च' ततो न मादृशैरल्पमेधोभि स्वमतिप्रभावत सग्रहीतु शक्यते। किन्तु कर्मप्रकृति प्रामृतादि-शास्त्रार्थ-पारगामि विशिष्ट श्रुतधरोदेशपारम्पर्यंत. ततोऽवश्य ते नमस्करणीया'-प० सं० उत्त।