________________
३५२ : जेनसाहित्यका इतिहास
किन्तु सत्कर्म गन्यमे हम परिचित नहीं हो सके । मलयगिरिने अपनी सप्ततिका टीका में उससे एक उद्धरण भी दिया है । सम्भवतया मलयगिरिका यह उद्धरण सप्ततिका चूर्णिका ऋणी है क्योकि उसमे यही उद्धरण' 'संतकम्मे भणियं' कहकर दिया गया है । 'सतकम्म' का नम्कृत रूप सत्कर्म होता है ।
पट्खण्डागमका परिचय कराते हुए रातकम्मपाहुड या सत्कर्मप्राभृतके विपयमें प्रकाश डाला गया है । सत्कर्म उससे भिन्न होना चाहिए क्योकि इसके उक्त उद्धरणमें बतलाया है कि क्षपक श्रेणि ओर क्षीण कपाय गुणस्थानमें निद्रा और प्रचलाका उदय नही होता । श्वेताम्बर कर्म साहित्यमे इस विषयमें दो मत पाये जाते है । कर्मप्रकृति, सप्ततिका और सत्कर्मके अनुसार उक्त गुणस्यान में निद्रा प्रचलाका उदय नही होता । किन्तु प्राचीन कर्मस्तत्र तथा प्राकृत पचसग्रहके अनुसार होता है । दिगम्बर कर्म साहित्य में यह मतभेद नही पाया जाता । उसमें क्षीणकपाय निद्रा प्रचलाका उदय माना है । अत दिगम्वरीय सतकम्मपाहुडसे श्वेताम्बरी 'रान्तकम्म' भिन्न होना चाहिए ।
तीसरी गाथा में गन्यकारने ग्रन्थके योग उपयोग मार्गणा, बन्धक, वन्धव्य, बन्धहेतु और वन्यविधि इन पांच द्वारोका निर्देश किया है और तदनुसार ही आगे कथन किया है । अर्थात् प्रथम द्वारमें योग और उपयोग का कथन गुणस्थान और मार्गणा स्थानो में किया है । जैसा कि राक्षेप रूपमें शतकके प्रारम्भमें पाया जाता है । दूसरे द्वार मे कर्मका बन्ध करनेवाले बन्धक जीवोका कथन है । प्रथम दो गाथाओके द्वारा प्रश्नोत्तर रूपमें जीवका सामान्य कथन है-जीव किसे कहते हैं ? मोपशमिक आदि भावोसे सयुक्त द्रव्यको । जीव विसका स्वामी है ? अपने स्वरूपका । किसने उन्हें बनाया है ? किसीने भी नही बनाया । कहाँ रहते है ? शरीर में अथवा लोकमें रहते है । कबतक रहते है ? सर्वदा रहते है । कितने भावोसे युक्त होते है ? आगे सतपद प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाग, भाव और अल्पबहुत्व इन नी अनुयोगोके द्वारा जीवका कथन है । तीसरे बन्धद्वारमें आठो कर्मों और उनके उत्तर भेदोका कथन है । आठो कर्मोकी प्रकृतियोको बतलाने के पश्चात् ध्रुवबन्धी, अध्रुववन्धी, ध्रुवोदयी, अध्रुवोदयी, सर्वघाती, देशघाती, शुभ, अशुभ, तथा क्षेत्रविपाकी, भवविपाकी, पुद्गल-, विपाकी प्रकृतियोको वतलाया है । इस तरह कर्मप्रकृतियोका विविध रूपसे कथन तीसरे द्वारमें है ।
१. ' तदुक्त सत्कर्मग्रन्थे– 'निद्दादुगस्स उदओ खीणगखवगे परिच्चज्ज' ।
- सप्त० टी०, पृ० १५८ ।
२ स० चू०, पृ० ७ ।
३. इस चर्चा के लिए देखो - सि० चू० पृ० ७की टिप्पणी ।