________________
अन्य कर्मसाहित्य ३५१ डड्ढा अकलक देवके भक्त ज्ञात होते है उन्होने अपने पच सग्रहके अन्तमें अकलक देवके लघीयस्त्रय से एक कारिका उद्धृत की है। उन्हें अलकलक देवका कथन ही उचित प्रतीत हुआ । डड्ढाका ही अनुसरण अमितगतिने किया । और पञ्चसंग्रहकारके सामने अकलकदेवका वार्तिक नही था क्योकि पञ्चस ग्रहको रचना वातिक से पहले हो चुकी थी। अत. उन्होने 'चउदस' पाठ रखना ही उचित समझा क्योंकि जीवट्ठाण के अनुसार वही पाठ उपयुक्त था।
अत. पचसग्रहकार अकलक देवके पूर्ववर्ती होने चाहिए । अकलकदेव विक्रम की आठवी शताब्दीसे पश्चात्के विद्वान् नही है। अन पञ्चसग्रहकी रचना विक्रमकी आठवी शताब्दीसे पूर्व होनी चाहिए। चन्द्रर्षि महत्तरकृत पच सग्रह
दिगम्बरीय प्राकृत पञ्चसग्रहकी तरह श्वेताम्बर परम्परामें भी एक 'पचस ग्रह नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। जिसपर पञ्चसग्रहकारकी एक स्वोपज्ञ सस्कृत वृत्ति भी है। तथा आचार्य मलयगिरिकृत सस्कृत टीका है। यह भी कर्म प्रकृति आदि की तरह प्राकृत गाथावद्ध है ।
उसकी प्रथम गथाम वीर प्रभुको नमस्कार करते हुए पचसग्रहको कहनेका प्रतिज्ञा की गई है और उसे महार्थ तथा यथार्थ कहा है । गाथा' दोमें पचसग्रह नामकी सार्थकता बतलाते हुए कहा है कि चूंकि इस ग्रन्थमें शतक आदि पांव ग्रन्थोका यथायोग्य न्यास किया गया है अथवा इसके पांच द्वार है इसलिए पचसग्रह नाम सार्थक है।
शतक आदिसे कौनसे पांच ग्रन्थ ग्रन्थकारको अभीष्ट थे वह उन्होने स्वय प्रकट नही किया । टीकाकार मलयगिरि ने पचसग्रह शब्दकी व्याख्या करते हुए लिखा है-'शतक',सप्ततिका, कषाय प्राभृत, सत्कर्म और कर्मप्रकृति इन पांच ग्रन्थोका अथवा योग उपयोग विषयक मार्गणा, बन्धक, बन्धव्य बन्ध हेतु और बन्धविधि, इन पांच अधिकारोका जिस ग्रन्थमें सग्रह है वह पचस ग्रह है।
शतक, सप्ततिका, कषाय प्राभृतका परिचय तो पीछे कराया जा चुका है। १. स्वोपशवृत्ति तथा मलयगिरिकी टीकाके साथ पञ्चस ग्रह मुक्तावाई ज्ञानमन्दिर डभोई
(अहमदाबाद) से प्रकाशित हो चुका है। २. 'सयगाइ पञ्च गथा जहारिह जेण एत्थ सखिता। दाराणि पञ्च अहवा तेण जहत्था
मिहाणमिण ॥२॥'-५० सं०। पञ्चाना शतक-मप्ततिका-कपायप्रामत-सत्कर्म-कर्मप्रकृतिलक्षणाना ग्रन्थाना अथवा पञ्चानामर्थाधिकाराणा योगोपयोगविषयमार्गणा-वधक वन्धन्य-बन्धहेतु-बन्धविधिलक्षणाना सग्रह पञ्चसग्रह ।'-५० सं० टी०, पृ० ३१ ।