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३५० : जेनसाहित्यका इतिहास गाथामें उसे स्पष्ट करते हुए लिया है कि गंगी अपर्याप्तको में वैक्रियिक मिश्र काग योग होता है और गशी पर्याप्तकोमे नौदह योग होते है ।
इस तरह दोनोमे संशी पर्याप्त नियिक मिश्रयोग होने और न होनेको लेकर मतभेद है। किंतु लक्ष्मणसुत बड़ा और अगित गति'आचार्यने अपने प० स० में सगी पर्याप्तको पन्द्रह ही योग बतलाये है। मुझे इसका कारण लक्ष्मणसुत डड्ढापर तत्मावातिकका प्रभाव प्रतीत होता है। अभितगतिने तो उन्हीका अनुसरण किया है।
अबालक देवने स्वामिभेदमे शरीरोमें भेद करते हुए बतलाया है कि औदारिक तिर्यन्य मनुष्योके होता है, क्रियिक देव नारकियो के होता है और किन्ही तेजस्कायिक, वायुकायिका, पञ्चेन्द्रिय तियंञ्च तथा मनुष्यो के होता है । अकलक देवने अपने इस कथनपर पट्यण्डागम के जीवस्यानका प्रमाण देकर यह आपत्ति शकाकारके द्वारा उठाई है कि जोपस्थान में तो काययोग के स्वामियोका कथन करते हुए ओदारिक पाययोग और औदारिक मिश्र काययोग तियंञ्च मनुष्योके तथा वैक्रियिक काययोग और वैक्रियिक मिश्रकाय योग देव नारकियोके कहा है यहाँ आप तिर्यञ्च मनुष्योके भी कहते है। यह बात तो आगम विरुद्ध है । इसका उत्तर देते हुए अकल सदेवने याहा कि-'यह कथन अन्यत्र मिलता है व्याख्या प्रज्ञप्तिदण्डको शरीरके भेदोका कथन करते हुए वायुके औदारिक वैक्रियिक, तेजस और कार्मण चार शरीर कहे है । और मनुष्यो के पांच ।' मनुष्योके पाचो शरीर माननेसे ही सज्ञी पर्याप्तकके पन्द्रह योग हो सकते है, अन्यथा नही ।
ढड्डाने प्राकृत पच सग्रहका सस्कृत अनुवाद करते हुए भी पचसग्रहगत पाठको छोडकर मूल शतक प्रकरणका पाठ क्यो रखा, यह अकलक देवके तत्त्वार्थवार्तिकके अवलोकनसे स्पष्ट हो जाता है उन्हें अकलकदेववाली बात जॅची।
१. द्वौ चतुपु नवस्वेक समस् ता. सति सशिनि ।
जीवस्थानेषु विज्ञ या योगा. योगविशारदै. ॥१०॥
तदित्यम् मशिनि पर्याप्ते पच दश योगा . - स०५० स०, पृ०.८२ । २. 'स्वामिभेदादन्यत्वम्-औदारिक तिर्यड मनुष्याणाम्, वैक्रियिकी । देवनारकाणाम्, तेजो. वायुकायिकपञ्चन्द्रियनिर्यड मनुष्याणाणाञ्च केपाश्चित् । अत्राए चोदक --जीवस्थाने योगभङ्गे सप्तविधकाययोगस्वामिप्ररूपणाया ओदारिकमिश्रकाययोग औदारिकमिश्रकाययोगश्च तिर्यञ्चमनुष्याणा वैक्रियकयोगो वैझियिक मिश्रकाययोगश्च देवनाराकाणाम्उक्त , इह तिर्यड भनुष्याणामपीत्युच्यते । तदिदमार्पविरुद्धमिति । अत्रोच्यते--न अन्य त्रोपदेशात्। व्याख्याप्रशप्तिदण्डकेषु शरीरभ गे वायोरौदारिकवैक्रियकतैजस कार्मणानि चत्वारि शरीराण्युक्तानि, मनुष्याणा पच ।
-~-त वा०, पृ १५३, १५४ ।