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कमायवाड १९ दो शिष्य हुए मुस्थित और सुप्रबुद्ध । उन दोनोके इन्द्रदिन्न नामका शिष्य हुआ । उमके आर्यदिन्न, उसके सिंहगिरि, उसके वज्रसेन आदि । नन्दिमूत्र स्थ० मे मगु और नन्दिलके बीच मे चार नाम ओर भी पाठान्तररूपमें मिलते है - वे है --आर्य धर्म, भद्रगुप्त, वज्र और आर्य रक्षित । वज्रका नाम कल्पसूनको स्थविरावलीमं भी आया है | ये वज्रस्वामी ' अन्तिमदसपूर्वी थे । उन्होने सिगिरिमे दीक्षा ली श्री और भद्रगुप्त से पूर्वाका अध्ययन किया था । इमीगे शायद उन्हें दोनो ग्यविरावलियोमे स्थान दिया गया है । किन्तु कल्पसूत्रकी म्यविरावलीके अनुसार आर्य सुहम्ति और वज्रस्वामी के बीच मे चार नाम है । और नन्दिसूत्रकी स्थविरावलीमें यदि उक्त चार नामोको गम्मिलित किया जाता है तो आर्य महागिरि और वज्रस्वामी वीचमे आठ नाम हो जाते हैं । अर्थात् वज्रस्वामी आर्य सुहस्तीकी पाचवी पीढी में थे और आर्य महागिरिको आठवी पीढीमे थे । उधर एक 'दु पाकाल श्री श्रमणसघन्तोन" नामक पट्टावलीमे आर्य सुहस्ति और वज्रस्वामी के बीचमे होनेवाले सात युगप्रधान के नाम दिये है और तपागच्छकी गट्टावलीमें भी उनका निर्देश किया है । वे मात युगप्रधान है - गुणसुन्दर, कालिकाचार्य, म्कन्दिलाचार्य रेवतीमित्र, धर्मसूरि, भद्रगुप्त और श्रीगुप्त । ये सातो नाम न तो कल्पसूत्रकी स्थविरावलीमे है और न नन्दिसूत्रको स्थविगवलीमे । हाँ, पाठान्तररूपमे जो चार नाम नन्दिसूत्रकी म्थविगवली में सम्मिलित किये जाते है उनमेसे दो नाम 'धर्मसूरि और भद्रगुप्त' इनमे है ।
मेगने अपनी विचारश्रेणीमे लिखा है - 'स्थूलभद्रके दो शिष्य थे-आर्य महागिरि और आर्य सुहम्ती । उनमेंसे आर्य महागिरिकी शाखा मुख्य है | स्थवि - गवलीमे वह इम प्रकार कही है-मूरि बलिम्सह, स्वाति, श्यामार्य, गाडिल्य, ममुद्र, मगु, नदिल, नागहत्थी, रेवती, सिंह, स्कन्दिल, हिमवन्त, नागार्जुन, गोविन्द भूतदिन्न, लोहित्य, दूष्यगणि ओर देवद्धि । श्रीवीरस्वामीके पञ्चात् सत्ताईसवें युगप्रधान देवद्विगणिने सिद्धान्तोका व्यवकछेद न हो, इसलिये उन्हे पुस्तकारूढ किया दूसरी गाया, जो कल्पसूत्रमे कही है, इस प्रकार है--'आर्य सुहस्ती, सुस्थित, इन्द्र दिन्न, आर्यदिन्न, सिंहगिरि, वज्रस्वामी, वज्रसेन । इन दोनो शाखाओमे आर्य मुहस्तीके पञ्चात् गुणसुन्दरका और श्यामार्य के पश्चात् स्कन्दिलाचार्यका नाम नही
१ देसो, प्रभा० च० में नजम्वामीका चरित ।
२ पट्टा० म०, पृ० १६ ।
3. 'श्री आर्यमुहम्ती श्रीवजम्बामिनोरन्तराल श्रीगुणसुन्दरस्रि, श्रीकालिकाचार्य, श्रीकाद्रिलाचार्य, श्री रेवतीमित्रसरि, श्री वर्ममरि, श्रीभद्रगुप्नाचार्य श्रीगुप्नाचायश्च क्रमेण युगप्रधानमनक वभूव ।' - पट्टा० म०, पृ० ४७
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