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१८ जनमाहित्यका इतिहाग
गत उनके गागने का उन प्रकार की रमना मान्य ना नागि। इस माह मार्गमा भीर नागपतीको हम दोनो गयो ग ग पाfr उगपर में यह निर्णय करना शगग नही जानी जानाय अगा, परागगी। frन्तु ानना स्पष्ट है कि दोना दिवा गाता गलानां प्रमग नाता थे और गे महावाले जाने । [EET informan दिगम्बर और श्वेताम्बग्गीय गोगो
: Iriशार बताओगी एग ता पगग भी नी. मग, गगन कामिकोका गलान्निागे ना वियोम
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र गा . लोव नगे ही यह नाा प्राट नाम गिर नही पाया गता, किन्तु मामिगत गिगी गग प्रा. गागाता। आर्गमग बोर नागरती माया गिा गा माना। यारी चान यह भी है कि ये दोनो नाना गे गमगे , मानिनाम्बर मैदा प्रावत्य नही हुआ गाजत मिग-कग मिसान्नी पठन-पाठा आगमय आम्नायगारा प्रग्न नहीं गा । आगे शान्तिा शीरी प्रान. द्वारा उन शिपयार विगेर पाला जायगा ।
इग तरह दोनो परमगा जात आनागमभिमान गन्न प्रनीत नही होग। फिर भी दोनोकी नगगालीगना प्रस्न मनाही है। उनके गमानांल्पि हमे मर्वप्रयग नन्दिनी म्यविगालीगा ही पनिण ना होगा।
वेताम्बर आम्नायकी दो स्थविगलिगा प्रगानोर प्रानीन मानी जाती है । उनमे एक बाल्पगमे पाई जाती है और दूसरी नन्दिगूगमे । भद्रयाह अतयेवलीको गम्भाई सभूतिविजय के शिष्य स्यूरभद्गे दोनो ग्यविगर्वाग्गा नलती है । गलभद्रसे पूर्व के स्थविगेमें कोई अन्तर नहीं है।
स्थूलभद्रके दो गिप्य थे-गार्य महागिरि और मुहस्ती । आर्य महागिरिकी स्थविरावली नन्दिसूत्रमे है और आर्य सुहस्तीकी रिपसूत्रमे । किन्तु दोनो गुर्वावलियां देवद्धिगणिसे सम्बद्ध होनेमे देवद्धिगणिकी कही जाती है । मुनि दर्गनविजयजी क्ल्पसूत्रस्थविरावलीको गणधरवशीय और नन्दिमूत्रपट्टावलीको वाचकवीय बतलाते है । कल्प० स्थ० को क्यो गणवरवशीय माना गया है, यह हम नहीं समझ सके, क्योकि दोनो ही स्थविरावलियां सुधर्मा गणवग्मे आरम्भ हुई है। स्थूलभद्रके दो शिष्योसे ही उनमें भेद पडता है। तथा आर्य महागिरिकी गिण्यपरम्परामें ही आर्यमगु और नागहस्तीका नाम आया है। आर्य महागिरिकी नन्दिसूत्रोक्त शिष्यपरम्परा इस प्रकार है-वलिस्सह, स्वाति, श्यामार्य, शाण्डिल्य, ममुद्र, मगु, नन्दिल, नागहस्ति आदि । और आर्य सुहप्तिकी शिष्यपरम्परामें उनके