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कमायपाहुड . १७ तो अन्तिम केवली जम्बूस्वामीके निर्वाणके साथ ही दोनों परम्पराओके आचार्योकी नामावली भित्र हो जाती है । किन्तु श्रतकेवली भद्रवाहु उसके मध्यमे एक ऐसे आलोकस्तम्भ है, जिनके प्रकाशकी किरणोको दोनो अपनाये हुए है । उनके पश्चात् ही मधभेदका सूत्रपात होता है, जो आगे जाकर विक्रम सम्वत्की द्वितीय शताब्दीके पूर्विमे स्पष्ट रूप ले लेता है। अत श्रुतकेवली भद्रवाहुके पश्चात् अन्य कोई आचार्य ऐसा नहीं हुआ, जिसे दोनो परम्पराओने मान्य किया हो। इससे उक्त प्रश्न पैदा होना स्वाभाविक है। उसके ममाधानके लिए हमे दोनो परम्पगओमे उक्त दोनो आचार्योकी स्थितिका विश्लेपण करना होगा।
गुणधर और धरमेनकी गुरुपरम्परा भिन्न थी । गुणधररचित कपायप्राभृतको आर्यमा और नागहम्तीके द्वारा जानकर यतिवृपभने उमपर चूणिसूत्रोकी रचना की और धरसेनसे महाकर्मप्रकृतिप्राभृतको पढकर भूतवलि और पुष्पदतने उसके आधारपर पट्खण्डागम सिद्धान्तकी रचना की। इन दोनो ग्रन्थोके कतिपय मन्तव्योमे भेद भी पाया जाता है-जयधवला और धवलाटीकामे उनकी चर्चा है । उनका निर्देश करते हुए टीकाकारने दोनोको भिन्न' 'आचार्योका कथन' कहा है। इससे भी दोनो सिद्धान्तग्रन्थोकी परम्पराके भेदका समर्थन होता है। किन्तु इस गुरुपरम्पराभेदमें ऐसी कोई बात नही ज्ञात होती है जिसमे श्वेताम्बर-दिगम्बरपरम्परा. रूप भेदका ममर्थन होता हो या सकेत मिलता हो ।
उबर श्वेताम्वर परम्परामें न तो गुणधराचार्यका नामोनिया मिलता है और न यतिवृपभका । हाँ, सित्तरीचूणिमे 'कपायप्राभृत'का निर्देश अवश्य पाया जाता है। इधर दिगम्बर परम्परामें गुणधर, आर्यमा और नागहस्तीका नाम कपायप्राभृतके निमित्तसे केवल जयधवला और श्रुतावतारमे ही स्पष्टरूपसे आता है । किमी गुर्वावली या पट्टावलीमै इनका नाम हमारे देग्वनेमें नही आया।
श्वेताम्बर परम्परामे भी आर्यमगु और नागहस्तीका विवरण एक-एक गाथाके द्वारा केवल नन्दिसूत्रकी स्थविरावलीमें ही पाया जाता है। इनके किसी मतका या किसी कृतिका कोई उल्लेख श्वेताम्बर साहित्यमे नही मिलता। जब कि जयधवलाके देखनेसे यह प्रकट होता है कि टीकाकार वीरसेन स्वामीके सामने कोई ऐसी रचना अवश्य थी, जिसमे इन दोनो आचार्योके मतोका स्पष्ट निर्देश था, क्योकि यतिवृपभने अपने चूर्णिसूत्रोमे ‘पवाइज्जमाण' उपदेशका निर्देश अवश्य किया है किन्तु किसका उपदेश ‘पावाइज्जमाण' और किमका उपदेश 'अपवाइज्जाण' है, यह निर्देश नहीं किया। इसका स्पष्ट विवेचन किया है टीकाकारते, १ क०, पा०, मा० १, पृ० ३८६ । पटसं०, पु० १,५० २१७ । २ 'तच कसायपाहुडादिसु विहडत्तित्ति काउ परिसेसिय'-मि० च०, पृ० १० ।