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अन्य कर्मसाहित्य - ३२५ निर्देश है । अत उक्त कर्मस्तव इन दोनो पंचसंग्रहोंसे प्राचीन है। वीरसेनकी धवला टीकामें उद्धृत अनेक गाथाएं दि० पचसग्रह में ज्यो की त्यो पाई जाती हैं । अत दि० पंचसंग्रह विक्रमकी नौवी शताब्दीसे पहले रचा गया था और इसलिए कर्मस्तव उससे भी पूर्वका है। चन्द्रषि के प्राकृत पचसग्रह की स्वोपज्ञ टीकामें विशेषावश्यक माष्य का उद्धरण है और वि० भा० वि० स० ६८६ में रचा गया था । अत. चन्द्रर्षि विक्रमकी सातवी शतीसे पूर्व नही हुए यह निश्चित है।
विशेषावश्यक भाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकी विशेषणवतीमें कर्मप्रकृति और सितरीका तो निर्देश है किन्तु कर्मस्तवका नहीं है।
किन्तु उसके आधार पर यह निष्कर्ष नही निकाला जा सकता कि इसलिए कर्मस्तव उसके बाद होना चाहिए। क्योंकि कमंस्तवका क्षीण कषायके उपान्त्यसमयमें निद्राद्विककी व्युच्छितिवाली बात श्वेताम्बर कार्मिकोके विरुद्ध है। और इसलिए कर्मस्तवकी ओर कट्टर पन्थियोकी अनास्था होना स्वाभाविक है जैसा कि आचार्य मलयगिरिके वचनोसे प्रकट होता है
'केचित् पुन क्षपकक्षीणमोहेष्वपि निद्राप्रचलयोरुदयमिच्छन्ति तत्सत्कर्मकर्मप्रकृत्यादिग्रन्थ सह विरुध्यते इत्युपेक्ष्यते,-(सप्तति० टी०, पृ० १५८)
'अर्थात् कोई आचार्य क्षपक और क्षीणमोहोमें भी निद्रा-प्रचलाका उदय मानते है, वह सत्कर्म और कर्मकृति आदि ग्रन्थो से विरोधको प्राप्त होता है, इसलिए उसकी उपेक्षा करते हैं।
विशेषावश्यक भाष्यकारने भी शायद इसीलिए उसकी उपेक्षा की हो। कर्मस्तवमें कर्मोके नाम तथा भेदसख्यावाली गा० ८-९, शतक में ३८, ३९ नं० पर है । इसी तरह गा० ४८ सप्ततिचूर्णिमें पृ० ६६ पर है। मलयगिरिने उसका उल्लेख 'तथाचाह सूत्रकृत' करके किया है । जिससे प्रकट होता है कि वह उसे सप्ततिकारकी मानते है।
इस सादृश्यसे भी कोई निष्कर्ष निकालना तो सम्भव नही है। किन्तु सित्तरी और शतककी प्राचीनता की दृष्टिसे यही सम्भावना की जा सकती है कि सम्भवतया वह उन दोनो के पश्चात् और दि०प० स के पहले रचा गया है। दि० प्राकृत पञ्च संग्रह
पच सग्रह नामके चार अन्य उपलब्ध है दो प्राकृत में और दो सस्कृतमें। प्राकृत पचसंग्रह एक दिगम्बर परम्परा का है और एक श्वेताम्बर परम्पराका । यहाँ प्रथमकी चर्चा पहले की जाती है।
इस पंच संग्रहको प्रकाशमें लानेका श्रेय वीर सेवा मन्दिर देहलीके प०