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३२४ जैनसाहित्यका इतिहास गुणस्थानमें कौन-कौन कर्मप्रकृतियोको बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ताका विच्छेद
होता है।
कर्मस्तवके सबधमें एक उल्लेखनीय वात यह है कि इसमें क्षीणकषाय गुणस्थानके उपान्त्य समयमें निद्रा और प्रचला की उदयव्युच्छित्ति बतलाई है। दिगम्बर परम्परामें यही मत सर्वमान्य है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परामें सत्कर्मका मत विशेष मान्य है जिसके अनुसार क्षपकश्रेणीमें और क्षीणकषायमें निद्रा प्रचलाका उदय नही होता। सप्ततिका-उसकी चूणि, कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिका यही मत है । नव्यकर्मग्रन्थके कर्ताने भी इसी मत को मान्य किया है। अकेले चन्द्रषि महत्तरने कर्मस्तवका मत मान्य किया है । रचनाकाल
इस ग्रन्थके कर्ताका पता न लग सकनेसे इसका रचनाकाल भी अनिश्चित है। फिर भी इसके अन्य ग्रन्थोमें पाये जानेवाले उल्लेख आदिसे इसकी प्राचीनता व्यक्त होती है। इसकी वृत्ति गोविन्दाचार्यने रची है। यह गोविन्दाचार्य नागदेवके शिष्य थे। किन्तु उनके समयादिका भी पता नही चलता। इस वृत्तिकी ताडपत्रीय प्राचीन प्रति सं १२८८ को लिखी हुई मिलती है । अत यह सुनिश्चित है कि गोविन्दाचार्य स० १२८८ से पहले हो गये है । और इसलिए कर्मस्तव उससे भी पहले रचा जा चुका था।
बन्धस्वामित्व नामक तीसरे प्राचीन कर्मग्रन्थके भी क्र्ताका पता नहीं है उसमें कर्मस्तवका का निर्देश किया गया गया है । अत इससे कर्मस्तव पहले रचा गया था । बन्धस्वामित्वकी टीका वृद्धगच्छीय देव सूरिके शिष्य हरिभद्रसूरिने रची थी । यह वृत्ति अहिल्ल पाटकपुरमें जयसिंहदेवके राज्यमें स० ११७२ में रची गयी थी। इसमें कर्मस्तवटीका का निर्देश है। यह टीका गोविन्दाचार्यकृत ही जान पडती है । अत कर्मस्तवकी उक्त टीका सं० ११७२ से भी पहले की है, इसलिये कर्मस्तव उससे भी पूर्वका है । दि० प्राकृत पचसग्रहके तीसरे अधिकार का नाम भी कर्मस्तव अथवा बन्धोदय सत्वाधिकार है । और उसमें उक्त कर्मस्तवकी गाथाएँ वर्तमान है । तथा चन्द्रषिकृत पंचसग्रहकी स्वोपज्ञ टीकामें कर्मस्तवका
१ 'इय पुव्वसूरिकयपगरणेसु जडवुद्धिणा मय रइय। बन्धस्सामित्तमिण नेय कम्मत्थय
सोउ ॥५४॥-ब० सा० । २ 'अणहिल्लपाटक पुरे श्रीमज्जयसिव्ह देवनृपराज्ये, व सा टी प्रशस्ति । ३. 'आसा दशानामपि गाथाना पुनव्याान कर्मस्तवटीकातो वोद्धव्य'-सा टी.।। ४. 'एवमेकादश भगा सप्ततिकाकार मतेन । कर्मस्तवकारमतेन पन्चानामप्युदयो भवति'
- सं. स्वो. भा २, पृ २२७ ।