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________________ प्राचीन कर्मसाहित्य • ३२३ बतलाये है । इनका लक्षण बतलाते हुए धवलाकारने 'सब अंगोके विषयोकी प्रधानतासे वारह भगोके उपसहारको स्तव और बारह अगोंमेंसे एक अगके उपसंहारको स्तुति कहा है। इससे भी यही व्यक्त होता है कि स्तव सकलागी होता है और स्तुति एकागी होती है । अत उक्त कर्मस्तवमें अपने विषयका पूर्ण वर्णन है ऐसा ध्वनित होता है । यह पहले बतलाया है कर्म की दस अवस्थाएं होती हैं उनमें तीन मुख्य हैवन्ध, उदय और सत्ता । कर्मो के बंधनेको वन्ध, समयपर फल देनेको उदय और वन्ध के पश्चात् तथा उदय से पूर्व स्थिति रहनेको सत्ता कहते है । कर्म आठ है - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनके अवान्तर भेद क्रम से पाँच, नो, दो, अट्ठाईस, चार, बयालीस, दो और पांच कहे है । नाम कर्म के बयालीस भेदो के भी अवान्तर भेद मिलाने से नामकर्मके ९३ भेद होते है इस तरह आठो कर्मोंके कुल भेद १४८ होते हैं । उनमें भी अभेद विवक्षासे बन्धप्रकृतियोकी संख्या १२० और उदय प्रकृतियोकी संख्या १२२ ली गयी है किन्तु सत्त्व प्रकृतियो को सख्या १४८ ही ली गयी है | मोक्ष के लिये प्रयत्नशील जीवकी आन्तरिक अभ्युन्नति के सूचक चौदह दर्जे है जिन्हे गुणस्थान कहते हैं । ज्यो ज्यो जीव ऊपरके गुणस्थानोमें चढता जाता है। उसके कर्मोंके बन्ध, उदय और सत्तामें ह्रास होता जाता है । पहले दूसरे तीसरे आदि गुणस्थानों में कर्मो के उक्त १२०, १२२ और १४८ भेदोमें से किन किन कर्मों का बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ताका विच्छेद होता है यही कथन इस कर्मस्तव में किया गया है । गा० २-३ में बतलाया है कि पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में सोलहका, दूसरे सासादनमें पच्चीसका और चौथे अविरत गुणस्थान में दस प्रकृतियोंके बन्धका विच्छेद होता है । इसी तरह आगे पांचवें गुणस्थानमें चारका, छठेंमें छेका, सातवें में एकका, आठवें में छत्तीसका, नौवेमें पाचका, दसवेंमें सोलहका और तेरहवें सयोग गुणस्थान में एक सातावेदनीयका बन्धविच्छेद होता है । गाथा चारमें बतलाया है कि चौदह गुणस्थानोमें क्रमसे ५, ९, १, १७, ८, ५, ४, ६, ६, १, २, १६, ३०, १२ कर्मप्रकृतियोंका उदय रुकता चला जाता है । पाँचवी गाथामें कहा है कि पहलेसे तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त क्रमसे ५, ९, १, १७, ८, ८, ४, ६, ६, १, २, १६, और ३९ कर्मोंकी उदीरणाका विच्छेद होता है । इसी तरह आगे गा० ५, ६, ७ में सत्तासे विच्छिन्न होनेवाले कर्मोकी सख्याका निर्देश है । आगे उन्हीका विस्तारसे कथन करते हुए बतलाया है कि किस-किस L १ 'वार सगसधारो सयलगविसयप्पणादो थवो णाम । वारसगेसु एक्कगोवसंधारो थुदी ग्राम । पट्ख ०, पु ९, पृ २६३ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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