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३२२ : जेनसाहित्यका इतिहाग है किन्तु गर्गप्रगति ( उप२० गा० ३१ ) मे उगमा निषण किया है । राप्ततिगा 'णि 'गणेगि' गारगे उगमा निग किया है।
गगे मह नितित है गि गमतिका मागंप्रगनिगार यो गति नही है । अत. पतक मोर गप्ततिही आरा तथा अन्तिम गाथाओगे पाये जानेवाले गावश्यक भावारपर उन दोनोका गार्ता तब तक एका व्यक्ति नही माना जा गरता जवतक पातको कर्मप्रगतिकारी गति न माना जाये। कर्मस्तव
इन मूल अन्यती सरगा ५५ है। प्रारम्भिा गायाम जिनेन्द्रदेवको नगस्तार करके बन्ध, उस्य गोर सत्त्वगे गुरु 'रतव' को कहने की प्रतिज्ञा को गयो है । इसी परसे इगा गार्गस्तर नाग प्रतित हुगा प्रतीत होता है। पयोकि गार्गविषयक बना उदय सरवता ही इनमें विवेचन है। दिगम्बर्गय प्राप्त पचसंग्रहके अनार्गत तीसरा अधिकार कर्मस्तव नागा है। इस अधिकारमें प्रकृत कर्मस्तवकी प्राय सभी गाया पाई जाती है अतः इगो पर्मस्तव नाम के आधार पर ही उक्त पचराग्रह गोतीगरे अधिकारको कर्मस्तव नाम दिया गया है। चन्द्रपिकृत पसग्रहमी स्वोपन वृत्तिमें गर्मम्तया उरलेस मिलता है। अत प्रकृत गन्यका कर्मस्तव नाम गुमित एवं प्रसिद्ध है।
स्तवका प्रचलित अर्थ तो स्तुतिपरक ही है किन्तु स्तव और स्तुतिमें अन्तर है। अंगवायके चौदह भेदोमॅसे एक भेद चतुर्विशति स्तव है और एक भेद वन्दना है । चौवीस तीर्थसरोके स्तवनको चतुर्विशति स्तव कहते है और एक तीर्थकर विषयक स्तुतिको वन्दना चाहते है। अत स्तुतिसे स्तव व्यापक होता है।
पट्खण्डागमके वेदना खण्डके कृति अनुयोग द्वारमें आगममें उपयोगके प्रकार वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना अनुप्रेक्षा तथा स्तव स्तुति आदि
१. 'अण्णेसिं आयरियाण अणताणुवधीण उवसामणा नाम नत्थि, विसयोजणाणाम अणताणु
वधीण भवति ।' सि० चु० पृ० ६१ । २ 'नमिऊण जिणवारिंदे तिहुयणवरनाणदसणपईवे । वधुदयसत्तजुत्त वोच्छामि थय निसामेह, गोविन्दगणि की संस्कृत टीकाके साथ कमस्तव श्रीजैन आत्मानन्दसभा भाव.
नगरसे(वि० स० १०७२) 'सटीकाश्चत्वार प्राचीना कर्मग्रन्था' के अन्दर प्रकाशित हो चुका है। ३ 'चउबीसत्थो चउवीसह तित्थयराण वदणविहाण विदणा एकजिणजिणालयविपय ।'
-पटख पु १, ९६-९७ । 'एगदुगेतिसलोका थुतीसु, अन्तेसि होइ जा सत्त। देविदत्थयमादी तेण तु पर थया होइ ।।'-व्यव० स०७ उ० ।