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प्राचीन कर्मसाहित्य . ३२१
परिचय कराते हुए दस करणोका अथवा कर्मोमें होनेवाली दस अवस्थाओंका स्वरूप बतला आये हैं। उनमें तीन अवस्थाएं मुख्य है-बन्ध, उदय और सत्ता । उन्हीका विशेषरूपसे कथन इस ग्रन्थमें है । जिसका निर्देश दूसरी गाथामें किया गया है। उसमें कहा गया है-कितनी प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले जीवके कितनी प्रकृतियोका वेदन ( उदय ) होता है तथा कितनी प्रकृतियोका बन्ध और वेदन करनेवाले जीवके कितनी प्रकृतियोका सत्व होता है । इस प्रकार मूल और उत्तर प्रकृतियोके विषयमें अनेक भंग जानने चाहिये ।' इन्ही भंगोका विवेचन इस ग्रन्थमें किया गया है। यथा, गाथा तीनमें कहा है-आठो कर्मोका अथवा सात कर्मोका अथवा छह कर्मोंका बन्ध करनेवाले जीवोंके आठो कर्मोंका उदय और सत्त्व होता है। (पांच, चार, तीन या दो कर्मोका बन्ध किसीके नहीं होता)। और एक कर्मका बन्ध करनेवाले जीवके तीन विकल्प होते है-एकका बन्ध, सातका उदय
और आठको सत्ता १, एकका बन्ध, सातका उदय और सातकी सत्ता २, एकका बन्ध, चारका उदय और चार की सत्ता ३ । पहला विकल्प ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीवके होता है क्योकि उसके मोहनीय कर्मका उदय नही होता। दूसरा विकल्प बारहवें गुणस्थानवी जीवके होता है क्योकि उसका मोहनीय कर्म नष्ट हो जाता है । और तीसरा विकल्प तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीवके होता है क्योकि उसके चार धाति कर्म नष्ट हो जाते हैं । और इन तीनों गुणस्थानोंमें केवल एक सातवेदनीय कर्मका ही बन्ध होता है। गाथा चारमें उक्त भगोंका कथन जीवसमासोमें और गाथा पाचमें गुणस्थानोमें किया है । आगे इसी प्रकारका कथन आठो कर्मोंको उत्तर प्रकृतियोको माधार बनाकर किया गया है। कर्म प्रकृति और सप्ततिकामे मतभेद
कर्मप्रकृति और सप्ततिकामें कुछ मतभेद पाया जाता है । सप्ततिका गाथा २८ में नामकर्मके सत्त्व स्थान ९३, ९२, ८९, ८८, ८६, ८०, ७९, ७८, ७६, ७५, ९, ८ ये बारह बतलाये है । और कर्मप्रकृतिमें (सत्ता० गा० ९) १०३, १०२, ९६, ९५, ९३, ९०, ८९, ८४, ८३, ८२, ९-८ ये बारह सत्त्व स्थान नाम कर्मके कहे है। इस अन्तरका कारण यह है कि कर्मप्रकृतिकार पांच बन्धन और पांच सघात नाम कर्मोको अलग गिनते है । किन्तु सप्ततिकामें उनकी पृथक् गणना नहीं की। उनका अन्तर्भाव शरीरमें ही कर लिया है। सप्ततिका चूर्णिमें 'अपणे करके कर्मप्रकृतिके मतको मागम और युक्तिसे विरुद्ध कहा है।
सप्ततिका गाथा ६१ में अनन्तानुबन्धी चतुष्कको उपशम प्रकृति वतलाया १ एत्य अण्णे अण्णारिसाणि संतठटाणाणि विगप्पयति, ताणि आगमे जुत्तीहिय न
घडति ।-सि० चू०, पृ० २७ ।