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अन्य कर्मसाहित्य : ३०९ हाराष्ट्री प्राकृत हैं । किन्तु उसमें भी कुछ अपनी विशेषताएँ है जिसके उसे जैन-महाराष्ट्री कहा जाता है । दोनोका अन्तर दोनो चूणियोमें परिहोता है । ५० हीरालालजीका कहना है कि कर्मप्रकृति चूर्णिकी भाषा न की गयी है। इसके लिए उन्होने मुद्रित कर्मप्रकृति चूणिसे तथा कर्म- टीकाकार मलयागिरि एव यशोविजय उपाध्यायको टीकामोमें उद्धृत क्योको तुलनाके लिए दिया है । यथा-नाम पगडीतो = णाम पगईओ । इके परिवर्तन अर्धमागधी और जैन-महाराष्ट्रीके ही अनुरूप है, शौरसेनी। यतिवृषभके चूणि सूत्रोमें सर्वत्र 'पयडी' शब्द ही मिलता है। अर्घके अनेक लक्षण जैन-महाराष्ट्रोमें भी पाये जाते है और जैन-महाराष्ट्रीमें वर्तन हुए है 'क' के स्थानमें ग, तथा शब्द के आदि और मध्यमें भी 'ण' इ 'न', ये अर्धमागधीके लक्षण जैन-महाराष्ट्रीमें भी पाये जाते है। अनेक स्थलो राष्ट्रीकी अपेक्षा शौरसेनीका सस्कृतके साथ पार्थक्य कम और सादृश्य अधिक बात कर्मप्रकृति-चूर्णि और कसायपाहुड-चूर्णिसूत्रोको देखनेसे स्पष्ट हो है । अत टीकाकारोकी टीकाओमें उद्धृत चूणिवाक्योमें मूलचूणिसे जो कुछ पाया जाता है वह इस बात का सूचक है कि टीकाकारोके द्वारा उद्धृत पर तत्कालीन प्रभाव है। त कर्मप्रकृति चूणि यतिवृषभकी कृति नहीं है। प्रत्युत यदि कर्म प्रकृतिके ताने ही उसकी चूणि भी रची हो तो कोई असभाव्य बात नही है क्योकि परने कई स्थानोपर बन्धशतकका निर्देश इस रूपमें किया है कि उससे उक्त की पुष्टि होती है । उदाहरण के लिए, उदीरणा प्रकरणकी गाथा ४७ के गण सेससम' का व्याख्यान करते हुए चूणिमें कहा है । 'ये सव बन्धशतकमें है फिर भी असमोहके लिए यहाँ उसका कथन किया है ।' यह बात चूर्णिकार गमें किये गये कथनके सम्बन्धमें कही है । बूणिके मूलकार रचित होनेमें यह आपत्ति की जा सकती है कि चूर्णिकारने गाथाकी उत्थानिकामें 'आयरियेण' पदके द्वारा 'आचार्यने रची' ऐसा लिखा कन्तु हम देखते है कि पचसग्रहकारने अपनी स्वोपज्ञ पचसनहटीकामें अपना व अन्यपुरुषके रूपमें अथवा सूत्रकारके रूपमें किया है। हम इस सम्बन्धमें | जोर डालनेकी स्थितिमें नही है फिर भी हम अपने सन्देहको विद्वान् अन्वे। सामने रखना उचित समझते है । हमारा विश्वास है कि कसायपाहुड और रए बधसतगे भणिया तहा वि असमोहत्य उल्लोइया-क० प्र० चू०। अतोत्यमपि न हि न शिष्ट अत इष्टदेवतानमस्कारपूर्वक प्रवृत्तवान्'-पञ्च०, स०गा १ की उत्थानिका भावना सूत्रकार एव करिष्यति'--'एतदेव स्वस्वामित्व भावयति', एतदेव वृत्तिकारो भावयति',-पंचस० ।