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३१० · जैनसाहित्यका इतिहास यतिवृषभ के चूणिसूत्र कर्मप्रकृति तथा उसकी चूणिके रचयिताके सामने थे। चूर्णिका समय
चूणिके कर्ताकी तरह चूणिका समय भी अनिश्चित है। जिस तरह जिनभद्र गणिके द्वारा कर्मप्रकृतिका उल्लेख मिलता है उसी तरह उसकी चूणिका उल्लेख नही मिलता अत. जिनभद्रके सामने कर्मप्रकृतिकी चूणि उपस्थित थी या नही, यह निश्चयपूर्वक नही कहा जा सकता। किन्तु जिनभद्रगणिके विशेषावश्यकभाष्यका उद्धरण अपनी पचसग्रह टीकामें देनेवाले चन्द्रर्षि महत्तरके सम्मुख पचसंग्रहका कर्मप्रकृति विभाग रचते समय कर्मप्रकृति की ही तरह उसकी चूणि भी उपस्थित थी, यह निश्चित है । चूर्णिमें एक गाथा' उद्धृत है जिसमें योग के नामान्तर दिये है । यह गाथा पचसग्रह के मूलमें सम्मिलित कर ली गयी है । यह गाथा आवश्यक चूर्णिमें भी है किन्तु उसके मूलस्थानका पता नहीं लग सका। गाथा अवश्य ही प्राचीन होनी चाहिये। एक और गाथा क० चूर्णिमें उद्धृत है जो कुन्कुन्दके समयसार की ८०वी गाथा है, यह समयसार से ही उद्धृत की गयी होनी चाहिये क्योकि समयसारमें कोई गाथा ऐसी नही है जिसे सग्रह गाथा कहा जा सके । अत कर्मप्रकृति चूर्णिकी रचना समयसारके पश्चात् हुई है। कुन्दकुन्दका समय ईसाकी प्रथम शताब्दी है । कर्मप्रकृति ही जब उसके शताब्दियो पश्चात्' रची गयी है तब चूणिका तो कहना ही क्या है ।।
चूर्णिमें एक गद्याश और भी उद्धृत है-'सुठु वि मेहसमुदए होइ' यहाँ 'चदसूराण' (क० प्र० उदी० गा० ४८) यह अश नन्दीसूत्र ४३ में पाया जाता है। यद्यपि वाक्य नन्दीसूत्र में भी कहीसे लिया गया प्रतीत होता है । तथापि अनेक बातो का ध्यान रखते हुए यही सम्भव प्रतीत होता है कि चूर्णिकारने उसे नन्दीसूत्रसे लिया है । नन्दीसूत्र वलभी-वाचनाके समय (वि० स० ५१३)की रचना माना जाता है । अत चूर्णिको उसके पश्चात् की रचना मानना चाहिए । इसे भी चूर्णिको पूर्वावधि ही समझना चाहिए।
शतक-लघुचूर्णिके अवलोकनसे प्रकट होता है कि उसके कर्ताके सामने कर्मचूणि थी । उसका कर्ता भी पचसग्रहकार चन्द्रर्षि महत्तरको माना जाता है और
१ 'जोगो विरिय थामो उच्छ्राह परक्कभो तहा चिट्ठा । सत्ती सामत्थ त्ति य जोगस्स भवति
पज्जाया ॥१॥'-क० प्र०, च० (बध० ) गा०३ । २. पञ्चस०, कर्म प्र., गा० ४ । ३ 'जीवपरिणामहेतो(त) कम्मत्ता पोग्गला परिणमन्ति । पोग्गलकम्मणिमित्त जीवो वि तहेव
परिणमति ॥'-कर्म प्र०, चू०, सक. गा०१। ४ जै० सा० इ. (गु०), पृ १४३ ।