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अन्य कर्मसाहित्य : ३०३ निर्धारित नहीं है । परम्पराके आधार पर कर्म-प्रकृति को शिवशर्म सूरि की कृति माना जाता है।
मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिरसे प्रकाशित कर्म-प्रकृति की संस्कृत प्रस्तावना में लिखा है कि पूर्वधर भगवान श्री शिवशर्म सूरिने कर्म-प्रकृति नामक मूलग्रन्थ को रचा था । इतिहास का अभाव होनेसे इनका समय अभी तक निश्चित नहीं हो सका। इनके गुरु कौन थे और ये कितने पूर्वोके धारी थे यह भी निश्चित नहीं है । तथापि नन्दी-सूनके आदि पाठ को देखनेसे यह निश्चय किया जाता है कि ये आगमोद्धारक देवधिगणिके पूर्ववर्ती थे । ऐसी संभावना है कि ये दशपूर्वधर थे।"
जैन साहित्य का इतिहास (पृ. १३९)में लिखा है कि शिव शर्म सूरि नामके एक महान आचार्य हो गये हैं। उनका समय अनिश्चित है। उन्होने ४७५ गाथाओ में कर्म-प्रकृति नामक ग्रन्थ दृष्टिवादके अन्तर्गत दूसरे पूर्व में से उद्धार कर रचा है । अतः उनका समय वि स० ५००के आस पास रखा जा सकता है।'
कल्पसूत्रस्थस्थविरावली, नन्दीसूत्रस्थस्थविरावली आदि किसी प्राचीन पट्टावली में हमें शिवशर्म सूरि नाम देखने को नही मिला । चूर्णिकार को भी यह ज्ञात नही था कि इस कर्म-प्रकृति के रचयिता कौन है क्योकि उन्होने भी ग्रन्थकार का नाम नहीं दिया। चूर्णिकारकी तरह १२-१३ वी शताब्दीके टीकाकर मलयगिरिने भी यह नही लिखा कि कर्म-प्रकृति के कर्ता असुक नामके आचार्य है। हां, १८ वी शताब्दीके दूसरे टीकाकार यशोविजय ने कर्म-प्रकृति की प्रथम गाथा की उत्थानिकामें शिवशर्म सूरि का नाम दिया है। अतः उनके सामने कोई आधार अवश्य होना चाहिये जिसके आधार पर उन्होने कर्मप्रकृतिको शिवशर्म सूरि की कृति बतलाया । खोजने पर देवेन्द्रसूरि रचित नवीन कर्म-ग्रन्थो को स्वोपज्ञ' टीका में कर्म-प्रकृति का उद्धरण देते हुए उसे शिवशर्म सूरि रचित लिखा है। तथा उसी में एक स्थान पर शिवशर्म सूरि रचित शतक का उद्धरण दिया है। ____ कर्म-प्रकृतिकार ने कर्मप्रकृति की रचना करनेसे पहले शतक नामका भी एक ग्रन्थ रचा था वह कर्म-प्रकृतिसे ही ज्ञात होता है। अत देवेन्द्रसूरिके उल्लेखके अनुसार इन दोनोके रचयिता शिवशर्म सूरि थे। देवेन्द्र सूरि का समय १३-१४ वी शताब्दी है और मलयगिरि का समय १२-१३ वी शताब्दी है। दोनोमें एक शताब्दी का अन्तराल है फिर भी मलयगिरि जैसे बहुश्रुत टीकाकार ने कम-प्रकृति की अपनी टीकामें उसके रचयिता शिवशर्म सूरिके
१. 'यदाह शिवशर्म सूरिवर कर्मप्रकृतौ-स. च क., पृ. १३७ । २ यदुक्त शिवशम
सूरिपादै शतके'-स. च. क., पृ. ७९ ।