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३०४ : जैनसाहित्यका इतिहास नामका उल्लेख क्यो नही किया ? इस विचारवश खोज करने पर देवेन्द्रसूरिके इस उल्लेखका आधार शतकचूर्णिमें मिला । शतकचूर्णिमें लिखा है कि इस शतक नामके ग्रन्थको शब्द, तर्क, न्याय और कर्मप्रकृति सिद्धान्तके ज्ञाता, अनेक वादोमें विजय प्राप्त करनेवाले शिवशर्मा नामक आचार्यने रचा । अत चूर्णिसे यह प्रकट होता है कि शतक और कर्मप्रकृतिके रचयिता शिवशर्म सूरि थे। किन्तु शतकचूणिके इस उल्लेखका आधार क्या है, यह हम नही जान सके । कर्मप्रकृति-चूर्णिकी तरह ही शतक-चूणिके कर्ताका तथा उसका रचनाकाल भी अनिर्णीत है। किन्तु दोनो चूणियोकी शैली आदिकी तुलनासे यह स्पष्ट है कि दोनोके कर्ता भिन्न-भिन्न है तथा कर्म-प्रकृतिकी चूणिसे शतक चूणिवादमें रची गयी है। समय
यह शिवशर्मसूरि कब हुए इसके जाननेका कोई प्रामाणिक आधार उपलब्ध नहीं है । जो कुछ है वह उनके दोनो ग्रन्थ ही है। कर्मप्रकृतिकी उपान्त्य गाथामें उन्होने कहा कि-'इस प्रकार मुझ अल्पबुद्धिने भी जैसा सुना वैसा कर्मप्रकृतिसे उद्धृत किया । जो कुछ स्खलित कथन किया हो, उसे दृष्टिवादके ज्ञाता शुद्ध कर के कहे।' ___ चूकि कर्मप्रकृति-प्राभृत दृष्टिवादके अन्तर्गत द्वितीय पूर्वका अश था और श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुसार भगवान् महावीरके निर्वाणसे एक हजार वर्ष तक दृष्टिवाद रहा । अत कर्म-प्रकृति के रचयिता शिवशर्म सूरिका समय वि० स० ५०० के लगभग अनुमान किया जाता है ।
प० हीरालालजी शास्त्रीने कसायपाहुड सूत्रकी अपनी प्रस्तावनामें लिखा है कि वर्तमान कर्मप्रकृति वही कर्मप्रकृति है जिसका निर्देश यतिवृषभने अपने चूणिसूत्रोमें किया है । कसायपाहुडके चारित्रमोहकी उपशमना नामक अधिकारमें 'उवसामणा कदि विधा' इस गाथाशका व्याख्यान करते हुए कहा है कि 'उपशामनाके १ 'केण कयं ? ति शब्दतर्क न्याय प्रकरण कर्मप्रकृति सिद्धान्त विजाणएण अयोगवायसमा.
लद्धविजएण सिवसम्मायरियणामधेज्जेण कय।-शत. चू० पृ० १। २. 'इय कम्मपगडीभी जहा सुय नीयमप्पमइणावि। णोहियणा भोगकयं कह तु वरदिठिवायन्नू ॥५६॥
-कर्म प्र० सता०। 'उवसामणा कदि विधा त्ति उवसामणा दुविहा करणोवसामणा च अकरणोव सामणा च । जा सभकरणोवसामणा तिस्से दुवे नामधेयाणि अकरणोवसामणा त्ति वि अणुदिण्णोवसामणा त्ति वि । एसा कम्मपवादे । जा साकरणोवसामणा सा दुविहा त्ति वि देसकरणोवसामणा ति वि। सव्वकरणोवसामणाए देसकरणीवसामाणाए दुवे णामणि देसकरणोवसामणाए त्ति वि अप्पसत्य उत्सामणा त्ति वि। एसा कम्मपयडीस ।
-क० पा० सू०, द०।