________________
३०२ : जैनसाहित्यका इतिहास
के द्वारा ग्यारह' गुण-श्रेणिया गिनायी है । ये गुण-श्रेणिया जैन सिद्धान्तमें दोनो परम्पराओ में अति प्रसिद्ध है । षटखण्डागम्के वेदना-खण्डमें भी दो गाथाओके द्वारा ग्यारह गुणश्रेणिया गिनायी है । दोनो ग्रन्थो की गाथाओ में तो शब्दभेद हैं ही, आशय में भी किञ्चित अन्तर है । कर्मप्रकृतिमें 'जिणे दुविहें' पाठ है । चूर्णिमें उसका अर्थ सयोग केवली ओर प्रयोग - केवली किया है । किन्तु षट्खण्डागम में केवल 'जिणेय' पाठ है । और गाथाओं का विवरण करने वाले षट्खण्डागम के सूत्रों में जिनसे केवल अघ प्रवृत्त केवली और योग निरोध करने वाला सयोग - केवली लिया है । अयोग केवलीको नही लिया ।
तत्त्वार्थसूत्र के नौवें अध्यायमें भी ये गुण श्रेणिया गिनायी है । और दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनो परम्पराओके टीकाकारोने जिनसे सामान्य जिन ही लिया है और इस तरह वहा उनकी सख्या दस ही है ग्यारह नही |
1
उदय प्रकरणमें कर्मोके उदय का वर्णन है । कर्मों के फल देने को उदय कहते है । उदय के पश्चात् सत्ता का कथन है । किन स्थानोमें किन-किन कर्म प्रकृतियों का सत्त्व रहता है इसका विस्तारसे कथन है । उदय और सत्व दोनोके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश की अपेक्षा चार, चार भेद कर के उनके जघन्य और उत्कृष्ट भेदो के स्वामियो का कथन किया है । प्रदेश सत्कर्म में योग-स्थान और स्पर्धको का निर्देश करके भूयस्कार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य भेदो का कथन है ।
कर्म प्रकृति के इन प्रकरणोमें क्रमसे १०२ + १११ + १० + ८९ + ७१ + ३+ ३२ + ५७ = ४७५ गाथाए है ।
कर्ता -
इसमें तो सन्देह नही कि कर्म-प्रकृति एक प्राचीन ग्रन्थ है और उसकी प्राकृति चूर्णि भी प्राचीन प्रतीत होती है । किन्तु इन दोनो के रचयिताओ का नाम ज्ञात नही है और इसीलिए उनके रचनाकाल का भी कोई निश्चित समय
खवगे य खीणमोहे जिणे य दुविहे असखगुणसेढी ।
उदओ तव्विवरीओ कालो सखेज्जगुण सेढी || ९ || कर्मप्र०, उदय
सम्मत्तपत्ती विसावय विरदे अणत कम्म सें ।
दसणमोह क्खवए कसाय उवसामए य उवसते ॥७॥
खवय रवीणमोहे जिणे य णियमा भवे अमखेज्जा ।
तीव्विवरीदो कालो सखेज्ज गुण य सेडीओ ||८||' पट्स० पु० १२, पृ०, ७८ । 'समग्दृष्टि श्रावक विरता नन्त वियोजक दर्शन मोह क्षपकोपशमकोपशान्त मोहक्षपक क्षीणमोह जिना. क्रमशोऽसख्येयगुण निर्जरा ||४५ || ' तत्त्वा० सू० ।