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अन्य कर्मसाहित्य : ३०१ इस गाथाके भी पूर्वार्द्धमें बतलाया है कि ओपशमिक सम्यक्त्वका प्रथम लाभ मोहनीयके सर्वोपशमसे होता है । किन्तु आगे 'वियद्वेण' का अर्थ भिन्न किया है, यद्यपि पिपट्ट और 'विगिट्ठ' शब्दोमें वैसा भेद प्रतीत नही होता । जयधवलाकारने उसका अर्थ किया है-'जो मिथ्यात्वमें जा कर बहुत काल बीतने पर पुन सम्यक्त्वको प्राप्त करता है वह भी सर्वोपशमसे ही प्राप्त करता है । और जो सम्यक्त्वसे च्युत होकर जल्दी पुन सम्यक्त्यके अभिमुख होता है वह सर्वोपशमसे अथवा देशोपशमसे सम्यक्त्वको प्राप्त करता है।
कर्म-प्रकृतिके उपशमना-करणकी २६ वी गाथा और कसायपाहुडकी १०५वी गाषामें कोई अन्तर नही है किन्तु दोनोके टीकाकारोके अर्थमें अन्तर है गाथा इस प्रकार है
सम्मामिच्छद्दिट्ठी सागारे वा तहा अणागारे ।
अह वजणोग्गहम्मि य सागारे होई नायब्वो ॥२६।। कषायपाहुड में सागारे और 'अणागारे के स्थानमें 'सागारौ' और 'अणागारो पाठ है । कर्म प्रकृतिकी चूर्णिमें पूर्वार्धका अर्थ किया है-'सम्यग्मिथ्यादृष्टि या तो साकार उपयोगमें वर्तमान होता है अथवा अनाकार उपयोगमें वर्तमान होता है।' जयधवलाके अनुसार अर्थ है-सम्यगमिथ्यादृष्टि साकारोपयोगी होता है अथवा अनाकारोपयोगी होता है। दोनो अर्थोमें कोई अन्तर नहीं है। किन्तु उतरार्धके अर्थ में अन्तर है
कर्म प्रकृति चूणिमें अर्थ किया है
'यदि साकार उपयोगमें वर्तमान होता है तो व्यजनावग्रहमें होता है अर्थावग्रहमें नही । क्योकि सशयज्ञानी अव्यक्त-ज्ञानी होता है।' और जयधवलामें अर्थ किया है-'वजणोग्गहम्मि दु' यदि विचार पूर्वक अर्थ ग्रहण करनेकी अवस्थामें होता है तो सकारोपयोगी होता है।। ___इन गाथामो पर कसायपाहुडमें चूणि सूत्र नहीं है । कसायपाहुड और कर्मप्रकृति दोनोको दर्शन-मोहोपशमना नामक प्रकरण उक्त गाथाके साथ समाप्त हो जाता है और उसके पश्चात् कर्मप्रकृतिमें चारित्रमोहकी उपशमनाका कथन है । इसमें ७४ गाथाएं है अन्तमें २-३ गाथाओ द्वारा निधत्ति और निकाचनाका कथन है।
आठो करणो का कथन समाप्त होने के पश्चात् कर्मों के उदय का प्रकरण प्रारम्भ होता है। उत्कृष्ट प्रदेशोदयके स्वामी का कथन करने से पूर्व दो गाथाओ १. 'सम्मतुप्पत्ति सावयविरएसजोयणा विणासे य ।
दसणमोह क्खगे कसाय उवसामगुवसते ।।८।।