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२८० : जैनसाहित्यका इतिहास उक्त दोनो उद्धरणोकी दो पक्तियां विशेष रूपसे ध्यान देने योग्य है___ "व्याख्या प्रज्ञप्ति च पष्ठ खण्ड च तत. साक्षिप्प"
और 'सत्कर्मनामधेय पष्ठ खण्ड विधाय साक्षिप्य' जैसे वप्पदेव गुरुने पांच खण्डोमें व्याख्या प्रज्ञप्ति नामक छठे खण्डको मिलाकर छ खण्ड निष्पन्न किये और फिर उन पर टीका रची। वैसे ही वीरसेन स्वामीने व्याख्या प्रज्ञप्तिके आधारपर सत्कर्म नामक छठे खण्डका निर्माण करके उसे पांच खण्डोमें मिलाकर छ खण्ड निष्पन्न किये तव उनपर धवला नामक टीका लिखी।
यह ऊपर लिखा जा चुका है कि महाकर्मप्रकृति-प्राभृतके ज्ञाता धरसेनाचार्य थे और उन्होने भूतवलि पुष्पदन्तको पढाया था । महाकर्म-प्रकृतिप्राभृतमें चौवीस मनुयोगद्वार थे, उनमेंसे आदिके छ अनुयोगद्वारोके आधारपर भूतवलीने पट्खागमकी रचनाकी थी। किन्तु वीरसेन स्वामीने पट्खण्डागमके पांच खण्डोमें एक सत्कर्म नामक स्वरचित छठा भाग मिलाकर छै खण्ड निष्पन्न किये है और इस सत्कर्म नामक छठे खण्डमें महाकर्मप्रकृति-प्राभृतके अठारह अनुयोगद्वारोका संक्षिप्त कथन है जिन्हें महाकर्मप्रकृति-प्राभृत-ज्ञाता भूतवलीने भी छोड दिया था ऐसी स्थितिमें यह जाननेका कौतूहल होना स्वाभाविक है कि वीरसेन स्वामीने उन अट्ठारह अनुयोगोका परिचय किस आधारसे दिया क्या ? उनके समय तक महाकर्मप्रकृति-प्राभृतका ज्ञान अवशिष्ट था । इन्द्रनन्दिके श्रु तावतारसे उस जिज्ञासाका समाधान हो जाता है। व्याख्या-प्रज्ञप्तिको पा करके उन्होने अपने 'सत्कर्म की रचनाकी थी। अत व्याख्या-प्रज्ञप्तिमें अवश्य ही शेप अट्ठारह अनुयोगोका कथन होना चाहिए ।
धवला टीकामें दो स्थानोंपर उद्धरण देते हुए व्याख्या-प्रज्ञप्तिका उल्लेख किया है एक स्थानपर यह शंका की गयी है कि तिर्यग्लोकका अन्त कहां होता है ? उत्तर दिया गया है कि तीनो वातवलयो के बाह्य भागमें तिर्यग्लोकका अन्त होता है । इसपर पुन शकाकी गयी कि यह कैसे जाना ? तो उत्तर दिया गया कि 'लोक वातवलयोसे प्रतिष्ठित है, इस व्याख्या-प्रज्ञप्तिके वचन से जाना।
दूसरी जगह एक लम्बा उद्धरण इस प्रकार दिया है'जीवा ण भते । कदि भागावसेसियसि याउगसि परभविय आउग कम्म णिवधता वधतिगोदम जीवादुविहा पण्णत्ता सखेज्जवस्साउआ चेव असखेज्जवस्साउआचेव।
१ कम्मि तिरिय लोगस्स पज्जवसाण ? तिण्ह वादवल याण वहिर भागे। त कध जाणिज्जदि
'लोगो वादपदिठ्ठदो' ति वियाह पण्णत्ति वयणादो।-पटख०, पु० ३५ ।