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जयधवला - टीका २८१
तथ्थ जे ते अस खेज्जवस्साउआ ते छम्मासाव से सयसि याउगसि परभवियं आउग विधता वधति । तत्थ जे ते सखेज्जवस्साउभा ते दुविहा पण्णत्ता सोवक्कमाउआ णिरुवकमाउआ चेव । तत्थ जे ते णिरूवक्कमाउआ ते तिभागा वसे सियसि याउगसि परभविय आयुग कम्म णिवधता बघति । तत्थ जे ते सोवक्कमाउआ ते सियातिभागत्ति भागावसेसियसियायुगसि परभविय आउग कम्म णिबधता बंधति । ' एदेण वियाह-पणत्ति सुत्तेण सह कध ण विरोहो ? ण, एदम्हादो तस्स पुघ भूदस्स आइरिय भेएण भेदभावण्णस्स एयत्ता भावादो । - षट्ख० पु०, १० पृ २३७-२३८ ।
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शका — 'हे भगवन् । आयुमें कितने भाग शेष रहनेपर जीव पर भविक आयु कर्मको बाघते हुए बाघते है ? हे गौतम जीव दो प्रकारके कहे गये है-सख्यात् वर्पायुष्क और असंख्यात् वर्षायुष्क । उनमें जो असख्यात् वर्षायुष्क है वे आयुके छै मास शेष रहने पर भविक आयुको बाघते हुए बाघते है । और जो सख्यात् वर्षायुष्क जीव है वे दो प्रकारके कहे गये है-सोपक्रमाायुष्क और निरूपक्रमायुष्क । उनमें जो निरूपक्रमायुष्क हैं वे आयुमें त्रिभाग शेष रहनेपर परभविक आयुकर्म को बाधते है । और जो सोपक्रमायुष्क जीव है, वे कथचित् त्रिभाग कथचित् त्रिभागका त्रिभाग और कथचित् त्रिभाग- त्रिभागका शेष रहनेपर परभव सम्बन्धी आयुकर्मको बांघते है ।' इस व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्रके साथ विरोध क्यो नही आता ?
समाधान — नही, क्योकि इस सूत्र से व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र भिन्न है, आचार्य भेदसे भेदको प्राप्त है अत इन दोनोंमें एकत्वका अभाव है | धवलाके उक्त दोनो उद्धरण यद्यपि व्याख्या - प्रज्ञप्ति विषयक है तथापि दोनो दो विभिन्न दृष्टिकोणोको उपस्थित करते है । पहले उद्धरणमें वीरसेन स्वामी व्याख्याप्रज्ञप्ति के वचनको अपनी बातके समर्थनमें प्रमाण रूपसे उपस्थित करते है । दूसरे विस्तृत उद्धरणके सम्बन्धमें वे व्याख्या- प्रज्ञप्तिको षट्खण्डागम सूत्रसे भिन्न और आचार्य भेदसे भेदको प्राप्त कहते है । आचार्य भेदसे मतलब वहाँ आचार्य परम्पराका भेद ज्ञात होता है क्योकि यो तो भिन्न आचार्यों के द्वारा रचित सभी शास्त्रोमें आचार्य भेद पाया जाता है । अत उनका यह कथन सम्भवतया श्वेताम्वरीय पचम अग व्याख्या - प्रज्ञप्ति के विषयमें जान पडता है क्योकि उसमें उक्त प्रकारसे भगवान् महावीर और गौतमके मध्य हुए प्रश्नोत्तरोके रूपमें विवेचन मिलता है । साथ ही उक्त उद्धरणकी शैली और भाषा भी श्वेताम्बरीय आगमोके अनुरूप अर्धमागधी है । अर्धमागधीमें सप्तमीका एकवचन 'रिस' होता है यथा- 'छम्मा - सावसेयसि आउगमि ।' किन्तु महाराष्ट्रीमें जो दिगम्बर जैनागमोकी भाषा है 'म्मि' होता है ।