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जयधवला - टीका : २६३
चार्य इस प्रकार कहते हैं " ।
इन व्याख्यानाचार्यों का मत किन्ही विपयो में यतिवृपभ और उच्चारणाचार्यसे भिन्न था। लिखा है - 'यह सच है कि पूर्वोक्त व्याख्यान इस सूत्रके साथ विरोधको प्राप्त होता है, किन्तु उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अद्धाच्छेदमें तथा जघन्यथिति और जघन्य अद्धाच्छेदमें भेद कथन करनेके लिए व्याख्यानाचार्योने यह व्याख्यान किया है ।
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आगे लिखा है कि यह उच्चारणाचार्यके द्वारा कहे गये अल्पबहुत्वकी सदृष्टि है | अब चिरन्तन व्याख्यानाचार्यके अल्पबहुत्वको कहते है
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उपर्युक्त उल्लेखोसे स्पष्ट होता है कि जयधवलाकारके समक्ष अनेक उच्चाचार्योंके व्याख्यान उपस्थित थे । इनमें कई उच्चारणाचार्योंकी व्याख्याएँ अतिप्राचीन भी थी । सम्भवतया उनका नाम ज्ञात न होनेसे उनमेंसे कुछको चिरन्तन व्याख्यानाचार्यकी सज्ञा दी गयी है ।
इस प्रकार जयधवला - टीकामें अनेक प्राचीन व्याख्याओ के समाविष्ट होनेसे मूल्य विषयसे भी अधिक विषय अकित करनेका प्रयास किया गया है ।
तृतीय परिच्छेद छक्खंडागमकी अन्य टीकाऍ
वीरसेन स्वामीकी प्रसिद्ध धवलाटीकाके अतिरिक्त 'छक्खडागम' पर अन्य टीकाएँ भी लिखी गयी है । आचार्य इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें इन समस्त टीकाओका उल्लेख किया है । कुन्दकुन्दने परिकर्मटीका, शामकुण्डने पद्धत्तिटीका, तुम्बलूराचार्यने चूडामणिटीका, वप्पदेवने व्याख्याप्रज्ञप्ति और सुप्रसिद्ध तार्किक * समन्तभद्रने 'सस्कृतटीका लिखी है । इन्द्रनन्दिने बताया है
इस प्रकार व्याख्यान क्रमको प्राप्त होता हुआ छक्खडागम रूप सिद्धान्त १ 'एसो उच्चारणाइरियाणमहिप्पाओ । अण्णे पुणवक्खाणाइरिया एव भणति । क० पा०, भा० ३, पृ० २१३ |
२ भा० ३, पृ० २९१ ।
३ ' एसा उच्चारणप्पावहुअस्स सदिट्ठी । सहि चिरन्तनवक्खाणाइरियाणमप्पा बहुअं वत्तइस्सामो ।' भा० ३, पृ० ५३२ ।
१ कालान्तरे तत पुनरासन्ध्या पर्लार (2) तार्किकार्कोऽभूत् ॥१६७॥ श्रीमान् समन्तभद्रस्वामात्य सोऽप्यफीत्य त द्विविधम् ॥
सिद्धान्तमत पट्खण्डागमगतखण्ड पञ्चकस्य पुन ॥ १६८ ॥ अष्टौ चत्वारिंशत सहस्रमद्ग्रन्थरचनया युक्तम् ।
विरचितवानति सुन्दरमृदुसस्कृतभाषया टीकाम || १६९ ॥ - श्रु तावतार
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