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२६२ : जेनसाहित्यका इतिहारा देसकर इस अल्पवक्तग्य उत्तरार्षको उसने [ जिनगेनने ] पूरा किया ।'
इसमे गोवल इतना ही व्यक्त होता है कि पूर्वागी रचना गुम्ने यी और उत्तरार्धी रचना शिष्यने । किन्तु ग्रन्थका पूर्वभाग यहाँ तक माना जाये, यह निर्णीत नही होता। जिनसेनने अपनी प्रशस्तिग जयपवला टीकाको ६० हजार एलोक प्रमाण बतलाया है तथा उसे तीन स्वन्धोम विभाजित किया है-प्रदेशविभक्तिपर्यन्त प्रथम स्मन्य है, राक्रम, उदय और उपयोग गरे सन्धमें गम्मिलिन हैं । और शेष भाग तीसरा स्मन्य है। ___मोटे तौरपर ६० हजार फ्लोक प्रमाणको तीन भागोमें विभाजित किया जाये, तो एक-एक स्वन्ध वीरा-बीरा हजार प्रमाण होता है। इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतार में लिया है कि प्रारम्भको चार विभक्तियोकी वीस हजार श्लोक प्रमाण रचना करनेके पश्चात् वीरसेन स्वामीका स्वर्गवास हो गया। अत शेप भागकी ४० हजार श्लोक प्रमाण टीकाको रचना जयसेन ( जिनसेन )ने की। अत इन्द्रनन्दिके कथनानुसार संक्रमरो पहलेका विभक्ति पर्यन्त भाग वीरसेन स्वामीने रचा था। यद्यपि गणना करनेपर विभक्तिपर्यन्त ग्रन्थका परिमाण साढे छन्दीस हजार श्लोक प्रमाण वैठता है तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि इन्द्रनन्दिने जयधवलाको प्रशस्तिके उक्त कथनके आधारपर ही मोटे तौरपर स्कन्धोके प्रमाणको परिगणना की है।
सक्रमसे पहलेका विभक्तिपर्यन्त भाग बहुवाक्य भी है अत' जिनसेन स्वामीके कथनानुसार उसे पूर्वाध भाग माना जा मकता है। उक्त दोनो आचार्योंके उल्लेसोका समन्वय करनेसे यह निष्कर्ष निकलता है । अन्य व्याख्यानाचार्योका उल्लेख एव उपसहार
जयधवलामें कुछ अन्य व्याख्यानाचार्योके भी व्याख्यान उल्लिखित है । एक स्थानपर लिखा है-'यह उच्चारणाचार्य' अभिप्राय है, परन्तु अन्य व्याख्याना
१ 'पष्ठिरेवसहस्राणि ग्रन्थाना परिमाणत ।
श्लोकेनानुष्टभेनात्र निर्दिष्टान्यनुपूर्वश ३९॥ विभक्ति प्रथमस्कन्धो द्वितीय मक्रमोदयो। उपयोगश्च शेपस्तु तृतीय स्कन्ध इप्यते ॥१०॥
-ज० ध० प्र०। २ 'जयधवला च कपायप्राभतके चतस्रणां विभक्तिीनाम्। १८० । विंशतिसहस्रसग्रन्थरचनाया सयुताविरच्य दिवम् । यातस्तत पुनस्तच्छिप्यो जयसेनगुरुनामा ॥१८३।। तच्छेप चत्वारिंशता सहस समापितवान् । जयधवलेच पष्ठिसहस्रग्रन्थोऽभवट्टीका ॥१८४1,-श्र ताव० ।