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जयधवला-टीका · २६१ सूचक है कि उनके गुरुका स्वर्गवास हो चुका था । अपने को उनका शिष्य घोषित हुए जिनसेनने अपने सम्बन्धमें भी थोडा प्रकाश डाला है जिससे ज्ञात होता है कि जिनसेन अविद्धकर्ण थे अर्थात् कानछेदन का सस्कार होनेसे पहले ही उन्होने गृहवास छोड दिया था और गुरुके पास रहकर विद्याध्ययनमें लग गये थे अतः उनके कान ज्ञान शलाकासे बीधे गये थे। वह बाल-ब्रह्मचारी थे । उन्होने बाल्यावस्था से ही अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालन किया था। वे न तो अति सुन्दर थे और न अति चतुर ही फिर भा सरस्वतीने अनन्य शरण होकर उनका आश्रय ग्रहण किया। बुद्धि, शम और विनय ये तीन उनके नैसर्गिक गुण थे । वे शरीरसे अवश्य कृश थे, किन्तु तपसे कृश ( कमजोर ) नही थे। शारिरिक कृशता कृशता नही है । जो गुणो से कृश है वही वास्तवमें कृश है।'
जिनसेनके शिष्य गुणभद्रने अपने उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें लिखा है कि जैसे हिमालयसे गगाका, सर्वज्ञसे दिव्यध्वनिका और उदयाचलसे भास्करका उदय होता है, वैसे ही वीरसेनसे जिनसेन का उदय हुआ।
इन्ही जिनसेनने वीरसेनके द्वारा प्रारब्ध जयधवलाको पूर्ण किया ।
जयधवला टीकाके अन्त परीक्षण से भी यह निर्णय नही किया जा सका, कि गुरु और शिष्यमेंसे किसने कितना भाग रचा था। इसीसे जिनसेनाचार्यके वैदुष्य और रचना चातुर्यका अनुमान किया जा सकता है। उन्होने ज० ध०की प्रशस्तिमें लिखा है कि 'गुरुके द्वारा बहुवक्तव्य पूर्वार्धके लिखे जानेपर, उसको
१ 'तस्यशिष्योऽभवच्छीमान् जिनसेन समिद्धधी ।
अविद्धावपि यत्कौँ विद्धौ ज्ञानशलाकया ॥२७॥ यस्मिन्नासन्नभव्यत्वान्मुक्तिलक्ष्मी समुत्सुका । स्वयवरीतिकामेव श्रौति मालामयूयुजत् ॥२८॥ येनानुचरिता वाल्याब्रव्रतमसण्उितम् । स्वयवर विधानेन चित्रमूढा सरस्वती ॥२९।। यो नाति सुन्दराकारो न चातिचतुरो मुनि । तथाप्यनन्यशरणा यं सरस्वत्युपाचरत् ॥३०॥ धी शमोविनयश्चेति यस्य नैसर्गिका गुणा । सूरीनाराधयन्ति स्म गुणैराराध्यने न क ॥३१॥ य कृशोऽपि शरीरेण न कृशोऽभूत्तपोगुण ।
न कृशत्व हि शारीर गुणैरेव कृश कृश ॥३२।।' • 'अभवदिव हिमाद्रदेवसिन्धुप्रवाहो, ध्वनिरिव सकलज्ञात् सर्वशास्त्रैकमूर्ति । उदयगिरितटाद्वा भास्करो भासमानो, मुनि खु जिनसेनो वीरसेनादमुष्मात् ।।'
-उ०पु०प्र०। १ 'गुरुणाऽर्थेऽग्रिमे भूरिवक्तव्ये सप्रकाशिते।
तन्निरीक्ष्याल्पवक्तव्य पञ्चास्तेन पूरित ॥३६॥'