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२६० · जैनसाहित्यका इतिहास
सात हजार वर्षसे लेकर क्रमसे सत्तर कोडाकोडी सागर प्रमाण स्थिति देखी जाती है इससे जाना जाता है कि यह स्थिति एक समय प्रवद्धकी है।
क्योकि महावन्धमें कहा है कि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट आवाधा सात हजार वर्ष है और आवाधासे हीन कर्मस्थिति प्रमाण कर्म निपेक है।
( क पा , भाग ३, पृ १९४-१९५) इस तरह जयधवलामें चूर्णिसूत्रगत कथनका आशय सप्रमाण उद्घाटित किया है।
जयधवलाका पूर्वार्घ ही वीरसेन स्वामीके द्वारा रचित है । उत्तरभाग जिसमे करीव दस अधिकार आते है वीरसेन स्वामीके शिष्य जिनसेन स्वामीने रचा है। अतः पूर्वभागमें जितना प्रमेय चचित है उत्तरभाग विषय बहुल होते हुए भी सैद्धान्तिक गुत्थियोके रहस्य के उद्घाटन से प्राय वैसा परिपूर्ण नहीं है। स्वामी जिनसेनने सम्बद्ध विषयका जो कपायपाहुड और चूणिसूत्रोमें चर्चित है, बरावर खुलासा किया है, किन्तु गुरु जैसी बात नहीं है। अत आगेके विषय-परिचयकी जानकारी कषायपाहुड और चूर्णिसूत्रोके विपय परिचयसे कर लेना चाहिये उसीका व्याख्यान और उपादान उसमें है । रचयिता : वीरसेन और जिनसेन __ धवलाके पश्चात् जयधवलाकी रचना हुई है, यह बात जयधवलाकी प्रशस्तिसे तो प्रमाणित होती है, साथ ही जयधवलासे भी प्रमाणित है। जयधवलाके प्रारम्भमें ही मतिज्ञान और अवधिज्ञानका कथन करते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है-'इनके लक्षण जिस प्रकार वर्गणा' खण्डमें या उनके अन्तर्गत प्रकृति अनुयोगद्वारमें कहे है, वैसा ही कथन कर लेना चाहिये। वर्गणाखण्ड पांचवां खण्ड है। पांच ही खण्डोंपर वीरसेनने जयधवलाकी रचना की थी। अत उक्त उल्लेखसे प्रमाणित होता है कि धवलाकी रचना कर चुकनेके पश्चात् ही वीरसेनने जयधवलाकी रचनामें हाथ लगाया था, किन्तु उसे वह अधूरी ही छोड कर स्वर्गवासी हो गये। उसकी पूर्ति उनके अन्यतम सुयोग्य शिष्य जिनसेनने की। जयधवलाकी प्रशस्तिमें अपने गुरु वीरसेनके सम्बन्धमें श्रद्धावनत हृदयसे लिखते हुए जिनसेनने भूतकालकी क्रिया 'आसीत'का प्रयोग किया है, जो इस बातका १. "खिप्पोग्गहादीणमत्थो जहा वग्गणाखडे परूविदो तहा एस्थ वि परूवेदव्वो' .
~क. पा., भा. १, पृ. १४ 'एसि तिहं णाणाण लक्खणाणि जहा पयडि अणुओगहारे परूविदाणि नहा परू. वेदव्याणि -पृ. १७॥
हुए
की प्रशस्तिम अपूर्ति उनके अन्त उसे वह अध
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