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________________ २६४ : जेनसाहित्यका इतिहास गुरुपरम्परासे माता हुमा अति तीक्ष्णवुद्धिणाली गुभनन्दि और रविनन्दि मुनिको प्राप्त हुआ। भीमरथि और कृष्णमेसा नागको नदियोके मध्यदेगमें सुन्दर उत्कलिका ग्रामके समीप मगणवल्ली नागक विख्यात ग्राममे वप्पदेव गुरुने उन दोनो मुनियोके समीप उरा समस्त सिद्धान्तका विशेष रूपगे श्रवण किया । अनन्तर चप्पदेव गुरुने छ राण्डोमे-से गहावन्धको छोडकर शेप पांच गण्डोपर व्याख्यानामक टीका लिपी। 'छक्सटागम' को व्याण्या पूर्ण होने के पश्चात् 'कमायपाहुड' पर साठ हजार श्लोक प्रमाण टीका प्राकृतभापामें लिसी। इम प्रकार उक्त दोनो मूलागम ग्रन्यो पर विभिन्न टीकाओंका उल्लेख केवल श्रुतावतारो में प्राप्त होता है । विवुध श्रीधरने अपने श्रुतावतारमें तुम्वुलूराचार्य और उनकी टोकाका निर्देश नही किया है । तथा इन्द्रनन्दिने महावन्य पर रचित जिस सात हजार श्लोक प्रमाण पजिकाको तम्बुलूराचार्यको कृति कहा है, उसे उन्होने शामकुण्डाचार्यको ही कृति बतलाया है। ___ अब इन टीकाओके अस्तित्वके सम्बन्ध विचार प्रस्तुत किया जाता हैकुन्दकुन्दकृत 'परिकर्म' नामक ग्रन्थ इन्द्रनन्दिके कथनानुसार दोनो सिद्धान्त अन्योंको जान कर कुण्डकुन्दपुरमें श्रीपननन्दि मुनिने छ सण्डो में-से आदिके तीन सण्डोपर बारह हजार प्रमाण परिकर्म नामक ग्रन्थ रचा। कुण्डकुन्दपुरके यह श्रीपद्म नन्दि मुनि प्रसिद्ध जैनाचार्य कुन्दकुन्द ही ज्ञात होते है कुन्दकुन्दपुर ग्रामके निवासी होनेसे वह इसी नामसे विख्यात हुए। इनके द्वारा रचित समयपाहुड, पवयणसार, पंचाथिकाय, णियमसार, अठ्ठपाहुड आदि अनेक ग्रन्थ सुप्रसिद्ध है, किन्तु छक्खडागम पर उनके किसी व्याख्या ग्रन्थका अन्यत्र सकेत प्राप्त नही है। वीरसेन स्वामीकी धवला टीकामें अनेक स्थानो पर परिकर्म नामक ग्रन्थका उल्लेख बहुतायतसे मिलता है और उससे अनेक उद्धरण भी दिये गये है। किन्तु यह परिकर्म नामक ग्रन्थ किसके द्वारा रचा गया था, इसका कोई निर्देश धवलामें नही है और न उसे आगम ग्रन्थकी टीकारूप ही बतलाया गया है । धवलाटीकामें उसके उल्लेखोकी बहुलता देखकर यह सन्देह होना स्वाभाविक है कि शायद वह परिकर्म इन्द्र नन्दिके द्वारा निर्दिष्ट टीका 'ग्रन्थ ही तो नहीं है अत हम धवला - १ श्रीपद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्द । द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्र संजातसुचारणद्धि ॥' -शिलालेख न० ४२, ४३, ४७, ५०
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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