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जयधवला-टीका : २५७ १ समुत्कीर्तना-इसका अर्थ है कथन करना इसमें गुणस्थान और मार्गणामओमें मोहनीयकर्मका आस्तित्व और नास्तित्व बतलाया गया है । ग्यारहवें गुणस्थान तक सभी जीवोके मोड़नीय कर्मकी सत्ता पायी जाती है आगेके सभी जीव उससे रहित है । इसी तरह जिन मार्गणामोमें वारहवां आदि गुणस्थान संभव नही है उन मार्गणाओमें मोहनीय कर्मका आस्तित्व ही बतलाया है और जिन मार्गणामओमें सभी गुणस्थान सभव है उनमें अस्तित्व और नास्तित्व दोनो बतलाये है ।
सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव-इसमे बतलाया है कि मोहनीय विभक्ति किसके सादि है, किसके अनादि है, किसके ध्रुव (अनन्त ) है और किसके अध्रुव ( सान्त ) है।
स्वामित्व-इसमें बतलाया है कि जिसके मोहनीयकर्मकी सत्ता है वह उसका स्वामी है जो उसे नष्ट कर चुका है वह उसका स्वामी नही है ।
काल-इसमें बतलाया है कि किस जीवके मोहनीयकर्यकी सत्ता कितने काल तक रहती है और असत्ता कितने काल तक रहती है। किसी जीवके मोहनीयकी सत्ता अनादि-अनन्त है और किसके अनादि-सान्त है।
अन्तर-इसमें बतलाया है कि एक वार मोहनीयको सता नष्ट होने पर पुन कितने वाद प्राप्त होती है। किन्तु मोहनीयकर्म एक बार नष्ट हो जाने पर पुन नही बधता और वन्ध हुए बिना सता नही हो सकती अत मोहनीयका अन्तरकाल नही है ।
भगविचयानुगम-इसमें नाना जीवोकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके आस्तित्व और नास्तित्वको लेकर भगोका विचार किया है।
भागा-भागानुगम-इसमें बतलाया है कि सब जीवोके कितने भाग जीव मोहनीय कर्मकी सत्तावाले है और कितने भाग जीव मोहनीयकर्मकी असत्ता वाले है। __ परिमाण-इसमें मोहनीय कर्मकी सत्ता और असत्ता वाले जीवोंका परिमाण कहा है।
क्षेत्र-इसमें बतलाया है कि मोहनीयकर्यकी सत्ता और असत्तावाले जीव लोकके कितने भागमें रहते है ।
स्पर्शन-इसमें उक्त जीवोका त्रिकाल विषयक क्षेत्र कहा है।
काल-पहला कालका वर्णन किसी एक जीवकी अपेक्षासे है और यह नाना जीवोकी अपेक्षासे है। इसमें नाना जीवोकी अपेक्षा मोहनीयकर्मकी सत्ता और
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