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२५८ · जनसाहित्यका इतिहास
असत्तावाले जीवोका काल बतलाया है। दोनो ही प्रकारके जीव सदा रहते है इसलिए उनका काल सर्वदा कहा है ।
अन्तर-यह अन्तर भी नाना जीवोकी अपेक्षा है अत मोहनीयकर्मकी सत्ता और असनावाले जीव सदा पाये जाते है अत उनमें सामान्यसे अन्तर नही है।
भाव-इसमें बतलाया है मोहनीयकर्मकी सत्ता और असत्ता वाले जीवोके पांच भावोमें से कौन भाव होते है । सत्तावालेके पारिणामिकके सिवा शेप चार भाव होते है और असत्तावालेके केवल क्षायिकभाव होता है।
अल्पवहत्व-इसमें बतलाया है कि मोहनीयकर्मकी सत्ता वाले और असत्तावाले जीवोमें कौन अधिक है और कौन अल्प है।
इन अनुयोग द्वारोके साथ मूल प्रकृति विभक्तिका कथन समाप्त होता है। आगे हम जयधवला टीकामें आगत कुछ विशेप विवेचनोको ही चर्चा करेंगे
१ प्रकृति-विभक्ति-इसमे कहा है कि उच्चाग्णाचार्यने मूल प्रकृति विभक्तिके सतरह अनुयोगद्वार कहे है और आचार्य यतिवृपभने आठ अनुयोगद्वार कहे है । किन्तु इसमें कोई विरोध की बात नही है क्योकि एकने पर्यायाथिक नयका अवलम्बन लिया है तो दूसरेने द्रव्याथिक नयका अवलम्बन लिया है। वीरसेन स्वामीने उच्चारणाचार्यके द्वारा कथित विवरणका आश्रय लेकर सतरह अनुयोगद्वागेका विवेचन किया है।
इसी तरह एकक उत्तर-प्रकृति विभक्तिके ग्यारह अनुयोगद्वार यतिवृपभने कहे है और उच्चारणार्यने चौबीस कहे है। जयधवलाकारने उच्चारणाचार्यके अनुसार चौबीम अनुयोगदागेका ही कथन किया है। इस तरह जयधवला केवल चूर्णिमूनोंका व्याख्या-ग्रन्थ नही है किन्तु उसमें विपयगत प्रतिपादन भी विगेप है।
आचार्य यतिवृपभने चूणिमूवमें कहा है कि मोहनीय कर्मकी वाइस प्रतियोकी मत्ताका म्वामी मनुष्य ही होता है। एमकी टीकामें वीरसेनने कहा है कि आचार्य यतिवृपभके इस विषयमे दो उपदंश है । उनमेंमे कृतकृत्यवेदक जीव मरण नहीं करता, एन उपदेशको लेकर उक्त कयन किया है। उच्चारणाचार्यके अनुनार तमस्य वेदक मम्यग्दृष्टी जीव नही मरता ऐमा नियम नही है क्योकि उच्चारणाचार्यने चारी ही गतियों में वाईग प्रकृतिक विभक्ति म्थानका सत्त्व स्वीकार किया है।
अनन्तानुसन्धीको विनयोजना गम्यग्दाटी जीय ही करना है। अनन्तानुवन्धी म्पन्धीतरी मन प्रति सम परिणमानको विषयोजना पाहते है।