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________________ जयधवला-टीका · २५५ राष्ट्रकूट नरेश कर्कके शक सवत् ७३४ के ताम्रपत्रके अनुसार भानुभट्ट नामक प्राह्मणको अकोटक चौरासी ग्राम विषयक वटपद्रक गाव दानमें दिया गया था । कर्क सुवर्णवर्षके दानपत्रमें भी कर्क और गोविन्द दोनो भाईयोके द्वारा वटपद्रक गाव दानमें देनेका उल्लेख है। इसमें भी वटपद्रकको अकोटक चौरासी गावके अन्तर्गत लिखा है। अकोटक आज भी बडोदासे ५-६ मीलपर दक्षिणकी ओर वर्तमान है । कुछ समय पहले वहासे खुदाईमें कासेकी प्राचीन जैन मूर्तियां मिली है। उक्त वटपद्र या वाटग्रामको गुर्जरार्य अथवा गुर्जरनरेन्द्र द्वारा अनुपालित बतलाया है। यह गुर्जरनरेन्द्र राष्ट्रकूट अमोघवर्ष ही है । अमोघवर्प जिनसेनका परम भक्त शिष्य था। गुणभद्राचार्यने उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें लिखा है कि राजा अमोघवर्ष स्वामी जिनसेनके चरणोमें नमस्कार करके अपनेको पवित्र हुआ मानता था। राष्ट्रकूटोकी राजधानी मान्यखेट थी। अमोघवर्पके पिता गोविन्दराज तृतीयके समयके श० स० ७३५ के एक ताम्रपत्रसे ज्ञात होता है कि उसने लाटदेश-गुजरातके मध्य और दक्षिणी भागको जीतकर अपने छोटे भाई इन्द्रराजको वहाका राज्य दे दिया था। इसी इन्द्रराजने गुजरातमें राष्ट्रकूटोकी दूसरी शाखा स्थापित की थी। शक स० ७५७ का एक ताम्रपत्र बडौदासे मिला है । यह गुजरातके राजा महा सामन्ताधिपति राष्ट्रकूट ध्रुवराजका है। इससे ज्ञात होता है कि अमोघवर्पके चाचाका नाम इन्द्रराज था और उसके पुत्र कर्कराजने बगावत करने वाले राष्ट्रकूटोसे युद्ध करके अमोघवर्षको राज्य दिलवाया था। कुछ विद्वानोका मत है कि लाटके राजा ध्रुवराज प्रथमने अमोघवपके विरुद्ध बगावत की थी । अत अमोघवर्षको उसपर चढाई करनी पडी और गुजरात उसके राज्यमें आ गया। यह घटना जयधवलाकी समाप्तिसे कुछ ही समय पहलेकी होनी चाहिये, क्योकि ध्रुवराज प्रथमका ताम्रपत्र श० स० ७५७ का है और जयधवलाकी समाप्ति श० स० ७५९ में हुई थी। अत. बाटग्रामके गुजरातमें होने तथा गुजरातका प्रदेश उसी समयके लगभग अमोघवर्षके राज्यमें प्रोतके कारण अमोघवर्पका गुणगान किया है। अतः जयधवलाकी रचना वाटग्रामपुरमें राजा अमोघवर्षके राज्यमें शक स० ७५९ में पूर्ण हुई थी। जयधवलागत विषय वस्तु जयधवला कसायपाहुड और उसपर रचित चूर्णिसूत्रोकी विवरणात्मक विस्तृत व्याख्या है । अत उसका प्रतिपाद्य मूल विषय वही है जो उसके मूलभूत ग्रन्थोका है। किन्तु उसमें व्याख्याका रूप कैसा है और क्या विशेप कथन किया गया है, यही बतलाना यहाँ अभीष्ट है ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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