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२५४ : जेनसाहित्यका इतिहास
जयधवला टीका महत्त्व विषयको गम्भीरता और प्रतिपादनौलीको सुगमतापी दृष्टिरो जितना है, उगगे गाही अधिक प्रमेयो अधिक गमाविष्ट गारनेकी दृष्टिरी भी है। यह टीका अपनी विशालता और प्रमेयाधिक्यके कारण ही स्यतनग अन्य 'जयपाल गिनान्त' कही जाती है। गर्म फेवल चूणिगूगोमे आये हुए अनुगोगदारोगे अनुसार ही विषयका व्याख्यान नही सिया है, अपितु 'उच्चारणावत्ति में आये हुए अनुयोगद्वारोंके मापार पर विषयका निरूपण गिया है। इग प्रगार मूलगन्य 'कसायपाहुट' और चणिसूत्रोम निहित विषयका विवेचन 'उच्चारणावृत्ति के गनुगांगहाग अनुसार विस्तारपूर्वक किया है । गतएव इम ग्रन्यमें विषयका कथन दृढता, बहुनता और आत्मविश्वान पूर्वक किया गया है। ___ चूणिसूमोके व्याख्यान प्रगंगमे किसी भी भगको दृष्टिगे भोसल नहीं होने दिया है। पदोकी तो बात ही क्या, आचार्यने अकोकी भी व्याख्या प्रस्तुत की है। उदाहरणार्थ अर्याधिकार प्रकरणमें प्रत्येक गर्याधिकारसूत्रके आगे पढे अकोकी मार्थकताको लिया जा सकता है।
इस टीकाका एक अन्य महत्त्व विभिन्न विषयक अनेक दार्शनिक और संद्धान्तिक मतोको जानकारी गी है। टीकाकारने उपदेशोका कथन आचार्योके नामोके उल्लेस पूर्वक करके अपनी प्रामाणिकता सिद्ध की है।
जयधवलाका एक दूसरा महत्त्व ज्ञान, जीव, कर्म और कर्म मम्वन्धको विस्तृत रूपसे प्रस्तुत करना भी है। रचना स्थान और काल
पहले धवलाफा रचना काल निवद्ध किया जा चुका है । अत. इस सम्बन्धमें विशेप प्रकाश डालनेकी आवश्यकता नही । सक्षेपमें जयघवला टीका शकसवत् ७५९ ( वि० स० ८९४ ) में पूर्ण हुई।
यह जयधवला टीका वाटकग्रामपुरमें रची गयी है। इसके शासक गुर्जरार्य बताये गये है। आचार्य जिनसेनने प्रशस्ति-पद्य १२-१५ में गुर्जरार्य नरेन्द्रकी बडी प्रशसा की है और चन्द्र-तारा पर्यन्त उसकी कीतिक स्थिर रहनेकी भावना व्यक्त की है।
यह वाटकग्रामपुर कहाँ अवस्थित था और इसका आधुनिक नाम क्या सम्भव है, यह विचारणीय है। बडौदाका पुराना नाम वटपद्र, वटपद्रक या वटपल्ली है। कोषोमें पद्रका अर्थ ग्राम मिलता है। अत वाटकग्राम बडौदा ही होना चाहिए । वहाँके कुछ राष्ट्रकूट राजाओके कुछ ताम्रपत्र भी मिले है।