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जयधवला-टीका · २५३ लिखते है । उनके किसी भी व्याख्यानसे विषय सम्बन्धी कमजोरी प्रकट नही होती। वर्णनकी प्राजंलता और युक्तिवादिताको देखकर पाठक आश्चर्य चकित हुए विना नही रहता। टीकाकार प्रत्येक तथ्यकी पुष्टिके लिए प्रमाण प्रस्तुत करते है । उनके प्रत्येक कथनमें 'कुदो' लगा रहता है। वे इस 'कुदो' द्वारा प्रश्न करते है और तत्काल ही हेतुपरक उत्तर उपस्थित कर देते है। इस टीकामें टीकाकारने आगमिक परम्पराकी पूरी रक्षा की है और एक ही विषयमें प्राप्त विभिन्न आचार्योके विभिन्न उपदेशोका उल्लेख किया है।
इस टीकाग्रन्थकी रचनाशलीके सम्बन्धमें निम्नलिखित प्रशस्तिपद्यसे प्रकाश प्राप्त होता है
प्राय प्राकृतभारत्या क्वचित् सस्कृतमिश्रया । __ मणिप्रवालन्यायेन प्रोक्तोऽय ग्रन्थविस्तर ॥ -ज० प्र० प० ३७ इससे स्पष्ट है कि इस विस्तृत टीकाग्रन्थको रचना प्राय, प्राकृत-भापामें की गयी है । बीचमें इसमें कही-कही सस्कृतका भी मिश्रण है। इसी कारण यह टीका भी 'धवला' के समान 'मणिप्रवाल' कहलाती है।
निस्सन्देह 'धवला' की अपेक्षा जयघवला प्राकृतबहुल है। इसमें दार्शनिक चर्चाएं और व्युत्पत्तियाँ तो सस्कृत-भाषामें निबद्ध है, पर सैद्धान्तिक चर्चाओके लिए प्राकृतका प्रयोग उपलब्ध होता है । कही-कही तो कुछ वाक्य ऐसे भी मिलते है, जिनमें एक साथ दोनो भाषाओका उपयोग किया गया है। टीकाकी भाषा प्रसादगुणयुक्त और प्रवाहपूर्ण है। अध्ययन करते समय पाठककी जिज्ञासा निरन्तर बनी रहती है।
टीकाकारका भाषाके साथ विषय पर भी असाधारण प्रभुत्व है। जिस विषयका प्रतिपादन करते है। उसका शका-समाधान पूर्वक अत्यन्त स्पष्टीकरण कर देते है । चर्चित विषयको अधिक-से-अधिक स्पष्ट करनेकी कला इस टीकाग्रन्थमें विद्यमान है। जयधवलाके अन्तके निम्न पद्यसे शैलीगत वैशिष्टय पर प्रकाश पडता है
होइ सुगमं पि दुग्गममणिवुणवक्खाणकारदोसेण ।
जयधवलाकुसलाण सुगमं वि य दुग्गमा वि अत्थगई ।। -ज०म०प० ७ अनिपुण व्याख्याताके दोषसे सुगम वात भी दुर्गम हो जाती है, किन्तु जयधवलामें जो कुशल है, उनको दुर्गम अर्थका भी ज्ञान सुगम हो जाता है ।
इससे स्पष्ट है कि जयधवलाकी व्याख्यान शैली अत्यन्त सुगम है और इस टीकामें दुर्गम विषयको भी सुगम बनाया है।