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१०. जेनसाहित्यका इतिहास
रण बडे भादरके साग करते हुए आर्यगगुको ज्ञान और दर्शन गुणी का प्रभावक तथा श्रुतरामुद्रका पारगागी लिया है और नागस्तीको कर्मप्रकृतिमं प्रधान बतलाते हुए उनके वाचकवंशकी वृद्धिको शुभकामना की है ।
आवश्यक नि० में ' गणधरव गाथ वानको भी नमस्कार किया है। टीकाकार मलयगिरिने इसकी टीकागे वाचकका अर्थ उपाध्याय, और गणधरका अर्थ आचार्य किया है । किन्तु नन्दिनको टोका उन्होंने नानकका दूगरा ही अर्थ दिया है - 'जो शिष्यको पूर्वगत गून तथा अन्य गोकी याचना करता है उसे वाचक कहते है |'
पाण्डागमके वर्गणागण्डके अन्तर्गत बन्धन - अनुयोगद्वार के १९ वे गूनमे भी वाचक गणि आदि लगियोका निर्देश है | धवलाटीकाकार वीरमैन स्वामीने ग्यारह अंगोके ज्ञाताको गणी और बारह अगोके शाताको बाचक कहा है। उससे यही व्यक्त होता है कि पूर्वोके ज्ञाताको वाचक कहा जाता था और वानको की परम्पराको वाचकवश कहा जाता होगा ।
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श्वेताम्बर मुनि दर्शन विजयजीने लिंगा – 'विक्रमको छठी शताब्दी तक जैन ग्रन्योमें पूर्ववित् होनेका उल्लेख है । 'पूर्वज्ञानका विच्छेद होनेके बाद बाचकवश या वाचकशब्दका कोई पता नही लगता । इससे भी वाचक और पूर्ववित्का सम्बन्ध ठीक मालूम होता है ।'
मुनिजीके लेखानुसार वाचकवण माधुरी वाचनाका सूनधार अर्थात् आगमसंग्राहक सम्प्रदाय था । इसकी पट्टावली नन्दिसूत्रमें है । उसके अनुसार आर्य नागहस्ति से भार्य नागार्जुन वाचक तक वाचकवश होना सम्भव है ।
उक्त दिगम्वर तथा श्वेताम्बर उल्लेसोसे यह प्रकट है कि पूर्वविद्को वाचक कहते थे । किन्तु वाचकवशकी स्थिति स्पष्ट नही होती । 'नागहस्तीके वाचकवश' से तो यही ज्ञात होता है कि नागहस्ती वाचकवशके सस्थापक थे । किन्तु आगे नन्दी सूत्रमे ' रेवती नक्षत्रके वाचकवशकी वृद्धिकी कामना की गई है । ओर टीका
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१ 'एक्कारस वि गणहरे पवायण पवयणस्य वदामि ।
सव्व गणहरवस वायगवस पवयण
च ॥८२॥ '
--आ० नि०
२. ' पूर्वंगत सूत्रमन्यच्च विनेयान् वाचयन्तीति वाचका तेपा वश -क्रमभाविपुरुपपर्व प्रवाह ।' --न० सू० टी०, गा० ३० ।
३. पट्ख०, पु० १४, पृ० २२ ।
४ अनेकान्त, वर्ष १, पृ० ५७७ ।
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'जच्च जणधाउसमप्पहाणमुद्दिय कुवलयनिहाण |
चढउ वायगवसो रेवनक्खत्तनामार्ण ॥३१॥