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कसायपाहुड • ११ कार मलयगिरिने उन्हें नागहस्तीका शिष्य वतलाया है।
इसके सिवाय प्रज्ञापनासूत्रके प्रारम्भमे दो गाथाओके द्वारा उसके कर्ता श्यामार्यको नमस्कार करते हुए उन्हें वाचकवरवशका तेईसवाँ धीर पुरुप बतलाया है। चूकि ग्रन्थकी आदिमें ग्रन्थकार अपनेको नमस्कार नहीं करता, इसलिए टीकाकार मलयगिरिने उन दो गाथाओको अन्यकर्तृक कहा है, किन्तु व्याख्यान दोनो गाथाओका किया है। उन्होने लिखा है कि सुधर्मा स्वामीसे लेकर भगवान आर्य श्याम तेवीसवे थे। इसका मतलब यह होता है कि परम्परा सुधर्मासे आरम्भ हुई । (किन्तु सुधर्मासे श्यामार्य तक स्थविरोकी सख्या १२ ही होती है। अत: भगवान् महावीर और उनके शेप दस गणधरोको भी उसमें सम्मिलित करके वीरसे श्यामार्य तककी तेईस' सख्या पूरी की गई है और इस तरहसे वाचकवरोका वश भगवान् महावीरसे प्रारम्भ हुमा माना जाता है। किन्तु जिस श्यामार्यको प्रज्ञापनाका कर्ता और वाचकवशका तेवीसवाँ पुरुप कहा है उनकी स्थिति निर्विवाद नही है । मेरुतुगकी विचारश्रेणिमें उस स्थान पर कालकाचार्यका नाम है । और व्याख्यामें लिखा है कि यह निगोदव्याख्याता कालकाचार्य ही श्यामार्य है या अन्य है, यह विचारणीय है । तपागच्छकी पट्टावलीमें उन्हें तत्त्वार्थसूत्रकार स्वातिका शिष्य बतलाया है। और वीर निर्वाणके ३७६वे वर्पमें उनका स्वर्गवास बतलाया है। पट्टावलीसारोद्धारमें भी यही काल दिया है । (एक टिप्पणीमें लिखा है कि चार कालकाचार्य हुए, जिनमें से प्रथम इन्द्रके प्रतिवोधक निगोदका व्याख्यान करनेवाले श्यामाचार्य थे, जो स्वातिके शिष्य थे और वी० नि० स० ३२० से. ३३५ में हुए थे । नन्दिसूत्रकी स्थविरावलीमें भी उन्हे स्वातिका शिष्य बतलाया है।)
किन्तु प्रज्ञापनामें जो उन्हें वाचकवरवशका तेवीसवाँ पुरुप बतलाया है उससे १ 'वायगवरवसाउ तेवीसइमेण धीरपुरिसेण ।
दुद्धरधरेण मुणिणा पुव्वसुयसमिद्धबुद्धीण ॥३॥ सुयसागराविएऊण जेण सुयरयणमुत्तम दिण्ण। सीसगणस्स भगवओ तस्स णमो अज्जसामस्स ॥४॥ टी-वाचका पूर्वविदो वाचकाश्च ते वराश्च वाचकवरा वाचकप्रधानास्तेपा वश. प्रवाह । सुधर्मस्वामिन आरभ्य भगवानार्यश्यामस्त्रयोविंशतितम एव ।।
-प्रज्ञा • 'अय च प्रज्ञापनोपाङ्गकृतसिद्वान्ते श्रीवीरादन्वेकादशगणभृद्धि सह त्रयोविंशतितम पुरुप.
श्यामार्य इति व्याख्यात ।' ततोऽसौ श्यामार्योऽन्यो वेति चिन्त्यम् ।'-वि००। ३ पट्टा० स०, पृ० ४६ । ४ पट्टा० स०, पृ० १५० । ५ 'चत्वार कालिकाचार्या । तद्यथा-प्रथम शक्रप्रतिबोधक. प्रज्ञापनासूत्रकृत् श्रीस्वाति
सूरिशिष्य श्यामाचार्य वी० स० ३२० त. ३३५'-पट्टा० स०, पृ० १९८ ।