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२२६ - जैनसाहित्यका इतिहास विधि है और न निषेध ही है । अत: लोकका ऐसा ही आकार मानना चाहिये ।। स्पर्शनानुगमद्वारमें सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोका स्पर्शक्षेत्र बतलाते हुए प्रसगवश असंख्यात-द्वीप समुद्रोंके ऊपर फैले हुए ज्योतिष्क देवोका (चन्द्र और उसके परिवाररूप गृह, नक्षत्र आदिका) प्रमाण भी गणितशास्त्रके अनेक करणसूत्रोके द्वारा निकाला गया है। कहावत प्रसिद्ध है कि तारोको कौन गिन सकता है ? उन्ही तारोकी गणना गणितके अनुसार की गई है । (पृ १५०-१६०)
इसी प्रकरणमें द्वीपो और समुद्रोका क्षेत्रफल अनेक गणितसूत्रोके द्वारा पृथक्-पृथक् और सम्मिलित रूपसे निकालनेकी प्रक्रियाएँ दी गई है और यह भी सिद्ध किया है कि इस मध्यलोकमें कितना भाग समुद्रोसे अवरुद्ध है। (भा० ४, पृ० १९४-२०३) इस तरह द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम और स्पर्शानुगम अधिकार गणितशास्त्रको दृष्टिसेभी महत्त्वके है। __इसी तरह कालानुगममें कालविपयक अनेको शकाओका अपूर्व समाधान किया गया है। जीवस्थानके शेप अनुयोगद्वारोमें भी जैन सिद्धान्त विषयक अनेको चर्चाए चर्चित है। उन सवका सकेत करना भी यहाँ शक्य नही है । चूलिकाके सम्यक्त्वोपत्ति चूलिका नामक अधिकारके सूत्र ११ में कहा है कि अढाई द्वीप समुद्रोमें स्थित पन्द्रह कर्मभूमियोंमें जहाँ जिस कालमें जिन केवली और तीर्थकर होते है वहाँ जीव दर्शनमोहनीय कर्मका क्षपण करता है। इस सूत्रकी व्याख्यामें वीरसेन स्वामोने कहा है यहाँ पर 'जिन' शब्दको दुबारा ग्रहण करके, जिन दर्शनमोहनीयकर्मका क्षपण करते है ऐसा कहना चाहिये, अन्यथा तीसरी पृथिवीसे निकले हुए कृष्ण आदिके तीर्थकरत्व नहीं बन सकता है, ऐसा किन्ही आचार्योंका व्याख्यान है। इस व्याख्यानके अनुसार दुषमा, अति दुषमा सुषमा और सुषमा कालोमे उत्पन्न हुए जीवोके दर्शन मोहनीयकी क्षपणा नही होती, शेष दोनो कार्लोमें उत्पन्न हुए जीवोके दर्शनमोहकी क्षपणा होती है। इसका कारण यह है कि एकेन्द्रिय पर्यायसे आकर तीसरे कालमें उत्पन्न हुए वर्द्धनकुमार आदिके दर्शनमोहकी क्षवणा देखी जाती है। यहाँ यह व्याख्यान प्रधानरूपसे ग्रहण करना चाहिये।
इसका यह मतलब हुआ कि जो उसी भवमें जिन या तीर्थकर होनेवाले होते है वे तीर्थङ्करादिको अनुपस्थितिमें तथा तीसरे कालमें भी दर्शनमोहका क्षपण करते है । यह अपवाद कथन धवलाके सिवाय अन्यत्र नही देखा जाता।
चूलिका का यह अधिकार व्याख्यानकी दृष्टिसे बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
१ पटख० पु. ४, पृ० १०-२२ । २ पटल पु०६, पृ० २४६-२४७ ।