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धवला - टीका : २२७
इसके १६ वें सूत्रके व्याख्यानमें धवलाकारने कसायपाहुडचूर्णिसूत्रो के अनुसार सकलचारित्रकी प्राप्तिका कथन करते हुए औपशमिक चारित्रकी प्राप्तिके विधानमें- अनन्तानुबन्धी विसयोजना और दर्शनमोहनीयके उपशमका कथन, कषायोपशमनाका कथन, उपशान्तकषायके पतनका क्रम, फिर क्षायिक चारित्रकी प्राप्तिका विधान आदि कथन बहुत ही विशद रीतिसे किया है, जो अन्यत्र नही
पाया जाता ।
कृति-अनुयोगद्वार आदिमें मगलके निमित्तसे निमित्त, हेतु, परिमाण, कर्ता आदिका पुन विवेचन धवलाकारने किया है, जिसमें कर्ताके निमित्त से भगवान् महावीर, उनके समवसरण आदिका वर्णन उल्लेखनीय है । उनमें भगवान् महावीर - की सर्वज्ञताको भी सिद्ध किया है ।
भगवान् महावीरकी आयु मोटे रूपसे बहत्तर वर्ष मानी जाती है तथा मोटे रूपसे ही नो मास गर्भस्थकाल, तीस वर्ष कुमारकाल, १२ वर्षं छद्यस्थकाल (तपस्पा काल ), और ३० वर्ष केवलिकाल कहा जाता है । किन्तु धवलाकारने 'अण्णे के वि आइरिया' करके अन्य आचार्यक मतसे उक्त कालका प्रतिपादन किया है । वह अन्य आचार्योका मत गर्भमे आनेके दिनसे लेकर निर्वाण प्राप्त करने के दिन तककी गणनाके आधार पर स्थापित है । उसे हम ठीक-ठीक कालगणना कह सकते है । उसके अनुसार भगवान्' महावीरकी आयु ७१ वर्ष ३ मास २५ दिन थी । उसका हिसाब इस प्रकार है-आसाढ शुक्ल षष्ठीके दिन भगवान् महावीर त्रिशलाके गर्भमें आये । और वहाँ नौ माह आठ दिन रहकर चैत्र शुक्ला त्रयोदशीके दिन उन्होने जन्म लिया । चैत्र मासके दो दिन, वैसाखको आदि लेकर २८ वर्ष, पुन वैसाखसे लेकर कार्तिक पर्यन्त सात मास कुमाररूपसे विताकर मगसिर कृष्णा दसमीके दिन उन्होने प्रव्रज्या धारण की । अत २८ वर्ष ७ मास, १२ दिन पर्यन्त वह घरमें रहे । अव छद्मस्थकाल लीजिये - मगसिर कृष्णपक्षकी एकादशीसे लेकर मगसिरकी पूर्णिमा तक २० दिन, फिर पौप मास से लेकर बारह वर्प, फिर उसी माससे लेकर चार मास, चूकि उन्हे वैसाख शुक्ला दशमी के दिन केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई, अत वैसाखके पच्चीस दिन, इस तरह बारह वर्प पाच मास, पन्द्रह दिन तक भगवान् महावीर छद्मस्थ रहे । अब केवली काल लीजिए — वैसाख शुक्ल पक्षको एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक पाच दिन, फिर ज्येष्ठसे लेकर २९ वर्ष, फिर ज्येष्ठसे ही लेकर आसोज पर्यन्त पाच मास, फिर कार्तिक मास के कृष्ण पक्षके चौदह दिन बिताकर मुक्त हो गये । अमावस्याके दिन सव देवेन्दोने मिलकर निर्वाणपूजा की, इसलिये उस दिनको भी सम्मिलित
१ पट्स, पु० ९, पृ० १२१-१२६ ।