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धवला-टीका २२५ कहते हैं और सात राजु प्रमाण आकाशके प्रदेशोकी लम्बाईको जगतश्रेणी कहते है । तथा तिर्यग्लोकके मध्यम विस्तारको राजू कहते है। इस पर यह शका की गई है कि तिर्यग्लोकका अन्त स्वयभुरमण समुद्रकी वेदिकासे उस ओर कितना स्थान जाकर होता है ? तो उत्तर दिया गया है कि असख्यात द्वीपो और समुद्रोके व्याससे जितने योजन रुके हुए है उनसे सख्यातगुणा जाकर तिर्यग्लोकका अन्त आता है और उसका समर्थन तिलोयपण्णत्तिसे किया गया है। यह भी स्पष्ट कर दिया है कि इस प्रकार अर्थ करनेसे परिकमसे भी विरोध नही आता है। तब पुन शका की गई है कि अन्य व्याख्यानोसे तो विरोध आता है ? तो कह दिया कि वे सब व्याख्यानाभास है । उन्हें व्याख्यानाभास सिद्ध करके तथा अन्य एक-दो आपत्तियोका निरसन करके अपने अर्थका समर्थन करनेके पश्चात् वीरसेनने लिखा है-'यद्यपि यह अर्थ पूर्वाचार्योके सम्प्रदायके विरुद्ध है तथापि आगमके आधार पर और युक्तिके बलसे हमने उसका प्ररूपण किया है। इसलिये इस विपयमें यह इसी प्रकार है ऐसा आग्रह न करते हुए अन्य अभिप्रायका असग्रह नही करना चाहिये क्योकि अतीन्द्रिय पदार्थोके विषयमें छद्मस्थ जीवोके द्वारा कल्पित युक्तियोको निर्णायक नही माना जा सकता। ___ इसी तरह क्षेत्रानुगमद्वारमें लोकके आकारको लेकर वीरसेन स्वामीने अपने एक नये अभिप्रायका सयुक्ति स्थापन किया है। लोकका आकर अधोभागमें वेत्रासन, मध्यमें झल्लरी और ऊर्ध्व भागमें मृदगके समान माना गया है । किन्तु धवलाकारने उसे स्वीकार नही किया, क्योकि लोकको सात राजुका धन प्रमाण कहा है और ऐसा आकार माननेसे वह प्रमाण नही आता। इस बातको प्रमाणित करनेके लिये उन्होने अपने गणितज्ञानको विविध और अश्रुतपूर्व प्रक्रियाओके द्वारा उक्त कारवाले लोकका क्षेत्रफल निकाला है जो जगतश्रेणीके घन ३४३ राजूसे बहुत कम वैठता है । अत उन्होने लोकका आकार पूर्व पश्चिम दिशामें तो उक्त प्रकारसे घटता-बढता हुआ माना है किन्तु उत्तर दक्षिण दिशामें सर्वत्र सात राजू ही माना है । इस तरह माननेसे उसका क्षेत्रफल ३४३ राजू बैठ जाता है तथा दो दिशाओसे उसका आकार वेत्रासन, झल्लरी और मृदगके आकार भी दिखाई देता है। ____ उक्त लम्बी चर्चाका उपसहार करते हुए उन्होने कहा है कि लोकका वाहुल्य सात राजू मानना करणानुयोगसूत्रके विरुद्ध नही है, क्योंकि उसकी न तो १ एसो अत्थो जइवि पुज्वाइरियस पदायविरुद्धो तो वि तत-जुत्तिबलेण अम्हेहिं परूविदो।
तदो इदमित्थ वेत्ति णेहासगहो कायव्वो, अइदियत्यविसए छदुवेत्थवियप्पिदजुत्तीण णिण्णयहेउत्ताणुववत्तीदो।
-पटख० पु० ३, पृ० ३८ । १५