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१८६ : जैनसाहित्यका इतिहास
धर्मोको जान राकना किसी अपके लिये शक्य नहीं है । ओर अल्पज्ञ मनुष्य अपने अपने दृष्टिकोण वस्तुको जानते है और समझते हैं कि हमने पूर्ण वस्तुको जान लिया । फलत वे एक ही वस्तु के विपयमे विभिन्न दृष्टिकोण रसने के कारण परस्परमे टकरा जाते है । अनेकान्तदृष्टि उनके इस पारस्परिक विरोधको मिटाकर समन्वयका मार्ग दर्शाती है । वह बतलाती है कि एक ही वस्तुको लेकर परस्परमें टकरानेवाली दृष्टियां वस्तुके एक-एक अशको ही ग्रहण करती है और एकाशको ही पूर्ण वस्तु मान बैठने के कारण उनमें विरोध प्रतिभासित होता है । इस अनेकान्तग्राही दृष्टिको जैनदर्शन 'प्रमाण' के नामसे पुकारता है । ओर जो दृष्टि वस्तु एक धर्मको ग्रहण करके भी वस्तुमे वर्तमान इतर धर्मो का प्रतिक्षेप नही करती उसे नय कहते हैं । सक्षेपमें सकलग्राही ज्ञानको प्रमाण और एकाशग्राही ज्ञानको नय कहते है । यह नय प्रमाणका ही भेद माना गया है । चूकि वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है अत द्रव्यदृष्टिसे वस्तुको जाननेवाले ज्ञानको द्रव्यार्थिक नय और पर्यायदृष्टिसे वस्तुको जाननेवाले ज्ञानको पर्यायार्थिक नय कहते है । द्रव्यदृष्टि अभेदप्रधान है और पर्यायदृष्टि भेदप्रधान है । द्रव्यार्थिक नयके तीन भेद है नैगम, सग्रह और व्यवहार तथा पर्यायार्थिक नयके चार भेद है - ऋजुसून शब्द, समभिस्ढ और एवभूत ।
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सकल्पमात्रमे ही वस्तुका व्यवहार करनेवाले ज्ञानको नैगमनय कहते है । जैसे रसोई करनेका संकल्प करके उसका सामान जुटानेमें लगा मनुष्य पूछने पर उत्तर देता है मैं रसोई बना रहा हूँ । समस्त पदार्थों को अभेदरूपसे ग्रहण करने - वाला नय सग्रहनय है । जैसे वन, सेना, नगर । ये सज्ञाए सग्रहनयमूलक है । और सग्रहनयके द्वारा सगृहीत पदार्थोका क्रमश भेद-प्रभेद करके ग्रहण करनेवाला नय व्यवहारनय है । जैसे वनमें आम आदिके वृक्ष है । पदार्थकी वर्तमान एक क्षणवर्ती पर्यायको ग्रहण करनेवाला नय ऋजुसूत्रनय है । इस नयकी दृष्टिमे एक वर्तमान क्षणवर्ती पर्याय अतीत और अनागतसे भिन्न है तथा अतीतके नष्ट हो जाने और अनागत के अनुत्पन्न होनेसे वर्तमान क्षण ही व्यवहारोपयोगी है ।
काल, कारक, लिंग, सख्या आदिके भेदसे भिन्न अर्थको ग्रहण करनेवाला नय शब्दनय है । आशय यह है कि इनके भेदसे यह नय एक ही वस्तुको भिन्नरूप ग्रहण करता है । शब्दभेदसे अर्थभेदका ग्राही समभिरूढ नय है । जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर शब्द एक लिंगवाले होनेपर भी विभिन्न अर्थके वाचक है क्योकि इन शब्दोकी प्रवृत्तिका निमित्त भिन्न है, इन्दन क्रिया इन्द्रशब्दकी प्रवृत्तिका निमित और पूर्वारण ( नगरोका उजाडना ) किया पुरन्दरशब्दकी प्रवृत्ति में निमित्त है ।