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चूर्णिसूत्र साहित्य • १८५ तद्रूप व्याख्याको नियुक्ति कहते है और सूत्रका स्पर्श करनेवाली नियुक्तिको सूत्रस्पर्शकनियुक्ति कहते है। इसमें प्रथम अस्खलित और अमिलित आदि रूपसे शुद्ध और निर्दोप सूत्रका उच्चारण करना होता है। सभवतया यही प्रथम 'सुत्तप्फास' है जो उत्थानिकारूपमें आया है ।
वि० भा में लिखा है कि सूत्रका उच्चारण करनेपर, उसकी शुद्धताका नियम हो जानेपर फिर पदच्छेद करनेपर और सूत्रमें आगत शब्दोका निक्षेप हो जानेपर सूत्रस्पर्शकनियुक्तिका अवसर आता है । यह दूसरा सुत्तफास है जो अन्तमें आया है।
इस तरह चूर्णिसत्रमें आगत 'सुत्तफास' शब्दका अर्थ जानना चाहिये।
चूणिसूत्रकारने जैसे कसायपाहुडकी गाथाओको सूचनासूत्र और पृच्छासूत्र कहा है वैसे ही किन्ही गाथाओको वागरण ( व्याकरण ) सूत्र भी कहा है। जयधवलाकारने व्याकरणसूत्रका अर्थ व्याख्यानसूत्र किया है। और वह भी व्याकरणशब्दकी व्युत्पत्तिपूर्वक किया है। किन्तु व्याख्यानके अर्थमें व्याकरणशब्दका प्रयोग न तो वैयाकरणोमें देखा गया और न श्वेताम्वर परम्पराके आगमिक साहित्यमें ही।
किन्तु बौद्ध परम्परामें 'वेय्याकरण' शब्द 'अर्थवर्णना' अर्थमें प्रयुक्त हुआ है । बौद्ध जातक पांच भागोमें विभक्त है-पच्चुप्पन्न वत्थु, अतीतवत्थु, गाथा, वेय्याकरण या अत्थवष्णना और समोधान । गाथाएँ जातकके प्राचीनतम अश है। गाथाओके बाद प्रत्येक जातकमें वेय्याकरण या अत्थवण्णना आती है। इसमें गाथामओकी व्याख्या और उसका शब्दार्थ होता है। पालीके वेय्याकरण अर्थमें ही यतिवृषभने प्राकृत 'वागरण' शब्द का प्रयोग किया है। आगामिक व्याख्यानशैली
चूणिसूत्र–किसी भी आगामिक विषयके प्रतिपादनकी जैन शैली अपना एक विशिष्ट स्थान रखती है और उस वैशिष्ट्यके दर्शन अन्यत्र नहीं होते। इसका एक कारण यह है कि जैन परम्परामें वस्तुदर्शनकी और दृष्टवस्तुके प्रतिपादनकी अपनी शैली पृथक् है । उस शैलीको समझ बिना जैन आगामिक साहित्यमें चर्चित विषयोको समझना कठिन है।
जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है। वह प्रत्येक वस्तुको अनेकधर्मात्मक मानता है । उसके मतसे वस्तु अनेक धर्मोका एक अखण्ड पिण्ड है। वस्तुके उन अनेक १ क. पा० सू० पृ० ८८३ । २ वागरणसुत्त ति व्याख्यानसूत्रमिति, व्याक्रियतेऽनेनेति व्याकरण प्रतिवचनमित्यर्थ ।