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________________ १८४ : जनसाहित्यका इतिहास चूणिसूत्रकार राक्रमका वर्णन प्रारम्भ करनेगे पहले उगके प्रकृति अर्थका ज्ञान करानेके लिये पांच उपक्रमोका काथन करते है और यह बतलाकर कि यहां प्रकृतिराक्रमरो प्रयोजन है । वे प्रकृतिगक्रमकी तीन गायामका कयन करते है। पुन' लिसने हैं-ये तीन गापाएँ प्रकृतिगक्रमअनुगोगद्वारमें है और उन गायाओका पदच्छेद इग प्रकार है। गाथाओका व्याख्यान ममाप्त होने पर चूणिसूत्र आता है-'एरा सुत्तफासो' । यह इस बातकी सूचना देता है कि रानगाथाओका अवयवार्थ गमाप्त हुआ। इगगे चणिसूत्रकारको व्याख्यानगलीकी क्रमवद्धता और स्पष्टता प्रकट है। ____ गाथामख्याको दृष्टिगे चारित्रमोहक्षपणा नामक अन्तिम अधिकार सबसे पड़ा है। इसमें ११० गाथाए है, जिनमें २४ मूलगाथाए है और ८६ भाष्यगाथाए है। प्रत्येक मूलगाथा और उससे सम्बद्ध भायगाथामोकी ममुत्कीर्तना और विभापा ऐगे सुन्दर ढगसे की गई है कि प्रत्येक गाथाका हार्द समजनेमें सरलता होती है और पाठक उकताता नही । यहां आगत 'सुत्तफास' शब्द अपना कुछ वैशिष्टय रसता है। अत उसके सम्बन्धमे दो शब्द लिखना आवश्यक है। गाथाओकी उत्थानिकाके रूपमें 'एत्थ सुत्तगाहा', 'तत्य सुत्तगाहा', 'सुत्तसमुक्कित्तणा' जैसे चूणिसूत्रोकी तरह 'एत्तो' सुतप्फासो कायन्त्रो' चूणिसूत्र भी क्वचित् पाये जाते है। इसका अर्थ होता है-आगे सूरम्पर्श करना चाहिये । यहां 'सूत्रस्पर्श' शब्द 'सूत्रसमुत्कीर्तन' के अर्थमें ही प्रयुक्त हुआ है । किन्तु गाथासूत्रके उपसहाररूपमें भी 'एस सुत्तप्फामो' चूणिसूत्र क्वचित् पाया जाता है। इसका अर्थ जयधवलाकारने२ इस प्रकार किया है-'यह गाथासूत्रोके अवयवार्थका परामर्श ( विचार ) किया। स्पर्शका अर्थ परामर्श भी होता है। अनु० द्वा० सू०मे अनुगमके दो भेद किये है-सूत्रानुगम और नियुक्तिअनुगम । तथा नियुक्ति-अनुगमके तीन भेद किये है-निक्षेप-नियुक्ति अनुगम, उपोद्घात-नियुक्ति अनुगम और सूत्रस्पर्शक-नियुक्ति अनुगम । सूत्रके व्याख्यानको सूत्रानुगम कहते है । निर्युक्त अर्थात् सूत्रके साथ सम्बद्ध अर्थोको स्पष्ट करना, १, 'एत्तो सुतफासो कायव्यो भवदि ।' पुन्य परिभासिदत्याण गाहासुत्ताणमेहि समु क्कितणा जहाकम कायव्वा त्ति भणिद होइ-ज० ध० प्र० का० पृ० ६१७९ । २ 'एसो गाहासुत्ताणामवयवत्थपरामरसो को त्ति भणिद होइ'-ज० ध० प्र० का० पृ० ३४९१ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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