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महाबध . १६३
नुगम, निरन्तर स्थान-जीव प्रमाणानुगम, सान्तर स्थान जीव प्रमाणानुगम, नानाजीव काल प्रमाणानुगम, वृद्धि प्ररूपणा, यवमध्य प्ररूपणा, स्पर्शन प्ररूपणा
और अल्पबहुत्व । उक्त वेदना भाव विधानके परिचयसे इनका परिचय भी ज्ञात किया जा सकता है।
इसप्रकार मूलप्रकृति अनुभागवन्धका कथन करके पश्चात् उत्तर प्रकृति अनुभागवन्धका कथन उक्त अनुयोगोके द्वारा किया गया है ।
प्रदेशबन्धाधिकार महावन्धके इस अन्तिम अधिकारमें मूलप्रकृति प्रदेशबन्ध और उत्तर प्रकृतिप्रदेशवन्धका कथन किया गया है। दोनोके कथनका प्रकार एक ही है। सबसे प्रथम भागाभाग समुदाहारका कथन है
भागाभाग समुदाहार-आठ मूलकर्मोका बन्ध होते समय किस कर्मको समयप्रबद्धका कितना भाग मिलता है यह इसमें बतलाया गया है। सबसे कम भाग आयुको मिलता है क्योकि उसका स्थितिवन्ध सव कोसे अल्प है । उससे नामकर्म और गोत्रकर्मको विशेप अधिक भाग मिलता है क्योकि दोनोका स्थितिबन्ध तुल्य होते हुए भी आयुकर्मसे अधिक है। इन दोनोसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्मको विशेष अधिक भाग मिलता है क्योकि इन तीनोका स्थितिवन्ध नाम गोत्रसे अधिक है किन्तु परस्परमें समान है। उनसे मोहनीयकर्मको अधिक भाग मिलता है क्योकि उसका स्थितिबन्ध सबसे अधिक है। किन्तु वेदनीयकर्मको मोहनीयसे भी विशेष अधिक भाग मिलता है क्योकि सुख दुखके निमित्तसे वेदनीयकी निर्जरा बहुत होती रहती है । आठो कर्मोको जो भाग मिलता है वह उनकी बन्धको प्राप्त अवान्तर कर्म प्रकृतियोमे बँट जाता है । धातिकर्मोको प्राप्त द्रव्य दो भागोमें हो जाता है सर्वघाती और देशघाती । सर्वघाती द्रव्य सब प्रकृतियोमें बट जाता है किन्तु देशघाती द्रव्य केवल देशघाती प्रकृतियोमें ही बटता है । वेदनीयकर्म, आयुकर्म और गोत्रकर्मकी एक समयमें एक ही प्रकृति वधती है अत इन्हें जो द्रव्य मिलता है वह सब उस एक ही कर्मप्रकृतिको मिल जाता है । अत इनमें अवान्तर विभाग नहीं होता। शेप पाँच कर्मोमें ही अवान्तर विभाग होता है । उनकी जिस समय जितनी अवान्तर प्रकृतियाँ बधती है। उतनेमें ही बटवारा होता है।
यद्यपि महावन्धकी रचना गद्य सूत्रात्मक है। तथापि उत्तर प्रकृति प्रदेश बन्धाधिकारके प्रारम्भमें दो गाथाएं आती है । उनके द्वारा घातिकर्मोकी उत्तर प्रकृतियोमें बटवारेके क्रमका निर्देश किया गया है । गाथाएं इस प्रकार है