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१६२ · जनसाहित्यका इतिहास तदनुसार कर्मोके चार भेद किये गये है- जीवविपाकी, भवविपाकी, पुद्गलविपाकी और क्षेत्रविपाकी । चार घातिकर्म, वेदनीय और गोत्र ये जीवविपाकी है। आयुकर्म भवविपाकी है क्योकि नारक आदि भवोम उमका विपाक देसा जाता है नामकर्मको कुछ प्रकृतियाँ जीवविपाकी है, कुछ पुद्गलविपाकी और कुछ क्षेत्रविपाकी । यह मव कथन विपाकदेशमे किया गया है।
प्रशस्ताप्रशस्तप्ररूपणामें कहा है कि चार घातिकर्म अप्रगस्त है और अघातिकर्म प्रशस्त भी है अप्रशस्त भी । इन तीन अनुयोगद्वारोका कथन करनेके बाद उसके आधारमे स्वामित्वका कथन विस्तारमे किया गया है।
भुकजगारवन्ध-भुजगारसे यहां भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य बन्ध लिये गये है । वर्तमान समयमै पिछले ममयमे अधिक भागवन्ध होना भुजगार वन्ध है। और कम अनुभागवन्ध होना अल्प- अनुतरवन्ध है । तथा पिछले समयमें जितना अनुभागवन्ध हुआ हो, वर्तमानमें भी उतना ही अनुभागवन्ध होना अवस्थितवन्ध है । तथा पिछले समयमें वन्ध न होकर वर्तमानमें बन्ध होनेको अवक्तव्यवन्ध कहते है । इन चारो प्रकारके वन्धोकी अपेक्षा अनुभागवन्धका विचार इस अनुयोगद्वारमें किया गया है । इममें तेरह अवान्तर अधिकार है-समुत्कीर्तना, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोकी अपेक्षा भगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पवहुत्व ।
पदनिक्षेप-इस अनुयोगद्वारमें अनुभागवन्ध सम्बन्धी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि, उत्कृष्ट अवस्थान, जघन्यवृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानका समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन अवान्तर अधिकारोके द्वारा कथन किया गया है।
वृद्धिवृद्धिवन्धमें छह वृद्धि, छह हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदोका समुत्कीर्तना, स्वामित्व काल, अन्तर, नानाजीवोकी अपेक्षा भग विचयानुगम भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पवहुत्व, इन तेरह अनुयोगोके द्वारा कथन किया गया है ।
अध्यवसान समुदाहार—इसमें ये बारह अनुयोगद्वार है-अविभाग प्रतिच्छेद, स्थान, अन्तर, काण्डक, ओजयुग्म, षट्स्थान, अधस्तन स्थान, समय, वृद्धि, यवमध्य पर्यवसान और अल्पबहुत्व प्ररूपणा । चतुर्थ वेदना खण्डके अन्तर्गत वेदनाभाव विधान नामक अनुयोगद्वारकी द्वितीय चूलिकाका परिचय कराते हुए इन सबका परिचय करा आये है। । जीवसमुदाहार- इसमे आठ अनुयोगद्वार है-एक स्थान जीव स्थान प्रमाणा