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महाबध · १६१ कर्मोके अनुभागकी उपमा नीम, काजीर, विष और हालाहलसे दी जाती है। अघातिकर्मों में भी पाये जानेवाले चारो प्रकारके अनुभागको चतु स्थानिक अन्तके भेदको छोडकर पाये जानेवाले शेष तीन प्रकारके अनुभागको त्रिस्थानिक और अन्तके दो भेदोको छोडकर पाये जाने वाले शेष दो प्रकारके अनुभागको द्विस्थानिक कहते है । चार अघातिकर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतु स्थानिक होता है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुस्थानिक, त्रिस्थानिक, और विस्थानिक होता है । जघन्य अनुभागवन्ध विस्थानिक होता है । तथा अजघन्य अनुभागबन्ध द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुस्थानिक होता है। यह सव कथन घातिसज्ञामें किया गया है।
सर्व-नोसर्वबन्ध-सब अनुभागोके बन्धको सर्वबन्ध और उससे कम अनुभाग बन्धको नो सर्वबन्ध कहते है। इनका विचार इस अनुयोगमें किया है । आठो कर्मोका अनुभागबन्ध सर्वबन्धरूप भी होता है और नो सर्वबन्ध रूप भी होता है ।
उत्कृष्ट अनुत्कृष्टबन्ध-सवसे उत्कृष्ट अनुभागबन्धको उत्कृष्ट अनुभागबन्ध और उससे कम अनुभागवन्धको अनुत्कृष्ट अनुभागवन्ध कहते है । __ सभी कर्मोंमें दोनो प्रकारका अनुभागवन्ध होता है।
जघन्य-अजघन्य अनुभागबन्ध-सबसे कम अनुभागबन्धको जघन्य अनुभागबन्ध कहते है । और उससे अधिक अनुभागबन्धको अजघन्य अनुभागबन्ध कहते है। समी कर्मोमें दोनो प्रकारका अनुभागवन्ध होता है।
सावि-अनादि ध्रुवाध्रुवबन्ध-किसी कर्मका बन्ध न होकर पुन बन्ध होवे तो उसे सादि बन्ध कहते है । जो जीव अनादि कालसे पहले ही गुणस्थानमें वर्तमान है उसका बन्ध अनादिवन्ध है । अभव्यका बन्ध ध्रुव है और भव्यका कर्मबन्ध अध्रुव है। ऊपर जो उत्कृष्ट आदि चार प्रकारका बन्ध कहा है वह सादि है अथवा अनादि, इसका कथन इन अनुयोगद्वारोमें किया गया है।
स्वामित्व-इसका कथन तीन अनुयोगद्वारोकी अपेक्षा किया गया है वे तीन अनुयोगद्वार है-प्रत्ययानुगम, विपाकदेश और प्रशस्ताप्रशस्तप्ररूपणा । प्रत्यय कहते है । कारणको कर्मबन्धके चार प्रत्यय है-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग । इन चारोमेंसे किसके निमित्त से किस कर्मका बन्ध होता है इसका विस्तार प्रत्ययानुगममें किया गया है। यथा-छह कर्म मिथ्यात्वप्रत्यय, असंयम प्रत्यय और कषाय प्रत्यय होते है। वेदनीयकर्म मिथ्यात्वप्रत्यय, असयमप्रत्यय कषाय प्रत्यय और योगप्रत्यय होता है ।
कर्मके अनुभागका विपाक जीवमें, पुद्गलमें, क्षेत्रमें या भवमें होता है।