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१६० • जैनसाहित्यका इतिहास
यहाँ अघातिकर्मो में भी ये दो भेद किये गये है क्योकि अघातिकर्म भी जीवके प्रतिजीवीगुणोको घातनेके कारण घातिप्रतिबद्ध ही है । अत निषेकप्ररूपणामें सव कर्मोके सर्वघाति और देशघाति निषेकोका कथन किया गया है ।
अनन्तानन्तअविभागीप्रतिच्छेदोके समुदायको एक वर्ग कहते है । अनन्तानन्त वर्गीकी एक वर्गणा होती है और अनन्तानन्त वर्गणाओके समूहको स्पर्धक कहते है | वेदनाखण्ड में स्पर्धक प्ररूपणाका परिचय कराया गया है । स्पर्धक प्ररूपणामें स्पर्धकोका कथन है |
ये दोनो अनुयोगद्वार आगेकी प्ररूपणाके मूलाधार है । उनको आधार बनाकर सज्ञा, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध आदि चौबीस अनुयोगोके द्वारा अनुभागबन्धका कथन किया गया है । यहाँ सक्षेपमें इनका परिचय कराया जाता है ।
सज्ञा - सज्ञाके दो भेद है, घातिसज्ञा और स्थानसज्ञा आठ कर्मोमेंसे चार कर्मघाती है और चार अघाती है। घातिकर्मके भी दो भेद है, सर्वघाती और देशघाती । जो जीवके ज्ञानादि गुणोको पूरी तरहसे घातते है उन्हे सर्वघाती कर्म कहते है और जो एकदेशघात कहते हैं उन्हें देशघाती कहते हैं । चार घातिकर्मो का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वघाती होता है । अनुत्कृष्ट अनुभागवन्ध सर्वघाती और देशघाती होता है । जघन्य अनुभागबन्ध देशघाती होता है तथा अजघन्य अनुभागबन्ध देशघाती और सर्वघाती होता है । शेष चार कर्मो का उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध घातीसे सम्बद्ध अघाती होता है । घातिसज्ञामे यह कथन किया गया है ।
घातिकर्मोमें लता, दारु, अस्थि और शैलकी उपमाको लिये हुए चार प्रकारका अनुभाग माना गया है। जिसमें यह चारो प्रकारका अनुभाग होता है, उसे चतु स्थानिक अनुभाग कहते है । जिसमें शैलके बिना शेष तीन प्रकारका अनुभाग होता है उसे त्रिस्थानिक अनुभाग कहते है । जिसमें लता और दारुरूप अनुभाग होता है उसे द्विस्थानिक अनुभाग कहते है । और जिसमें केवल लता रूप अनुभाग होता है उसे एकस्थानिक अनुभाग कहते है । चारो घातिकर्मो का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतु स्थानिक होता है । अनुत्कृष्ट अनुभागवन्ध त्रिस्थानिक, द्विस्थानिक और एकस्थानिक होता है । जघन्यअनुभागबन्ध एकस्थानिक होता है, और अजघन्य अनुभागबन्ध एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतु स्थानिक होता है ।
अघातिकर्म दो प्रकारके होते है- प्रशस्त और अप्रशस्त । प्रशस्त कर्मोके अनुभागकी उपमा गुड, खाण्ड, शक्कर और अमृतसे दी जाती है । और अप्रशस्त