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१६४ : जैनसाहित्यका इतिहास
'ज सव्वघादिपत्त सगकम्म पदेसाणतिमो भागो । आवरणाण चदुधा तिधा च तत्थ पचधाविग्घे ॥ मोहे दुधा चदुद्धा पचधा वा पि वज्झमाणीण । वेदणीयाउगगोदे य वज्भमाणीणं भागो से ॥
(म० व०, भा० ६, पृ० ८९) इनमें बतलाया है कि प्रदेशवन्धके होने पर धातिकर्मोको जो द्रव्य प्राप्त होता है उसका अनन्तवाँ भाग सर्वघाती द्रव्य है और शेप बहुभाग देशघाती द्रव्य है । ज्ञानावरणको जो देशघाती द्रव्य मिलता है वह उसकी चारो देशघाती प्रकृतियोमें विभक्त हो जाता है। दर्शनावरणको जो देशघाती द्रव्य मिलता है वह उसकी तीनो देशघाती प्रकृतियोमें बट जाता है। अन्तरायकर्म देशघाती ही है । अत उसको प्राप्त द्रव्य उसकी पांचो देशघाती प्रकृतियोमें वट जाता है। मोहनीयकर्मके देशघाती द्रव्यके मुख्य दो भाग होते है एक भाग कपायवेदनीयको मिलता है और एक भाग नोकषाय वेदनीयको। कपायवेदनीयका द्रव्य वन्धानुसार चार भागोमें और अकषायवेदनीयका द्रव्य पाँच भागोमें विभक्त हो जाता है । वेदनीय, आयु और गोत्रकर्मकी उत्तर प्रकृतियोमेंसे एक कालमें एकका ही वन्ध होता है। इसलिये इन कर्मोको प्राप्त द्रव्य बधने वाली उस एक प्रकृतिको ही मिल जाता है।
भागाभाग समुदाहारके पश्चात् चौवीस अनुयोगद्वारोका निर्देश है। जो इस प्रकार है-स्थानप्ररूपणा, सर्वबन्ध, नोसर्ववन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टवन्ध, जघन्यबन्ध, अजघन्यबन्ध, सादिवन्ध, अनादिवन्ध, ध्रुवबन्ध अब्रुववन्ध, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षाकाल, अन्तर, सन्निकर्प, नानाजीवोकी अपेक्षा भगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व। उनके पश्चात् भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि, अध्यवसान समुदाहार और जीव समुदाहारका कथन किया गया है । इनका सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है--
स्थान प्ररूपणा-इसके अवान्तर अधिकार दो है-योग स्थान प्ररूपणा और प्रदेशबन्ध प्ररूपणा। योग स्थान प्ररूपणामें चौदह जीव समासोके आश्रयसे पहले जघन्य और उत्कृष्ट योगस्थानोंके अल्प बहुत्वका कथन किया है। फिर दस अनुयोगोके द्वारा उनका विशेष कथन किया है। वे दस अनुयोगद्वार हैअविभाग प्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा; अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपतिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ।
मन, वचन और कायसे युक्त जीवकी जो शक्ति कर्मोको लानेमें कारण है