________________
छक्खडागम १२९ ज्ञानके २८ भेद होते है और उतने ही उनके आवरणोके भी भेद होते है । इनमें चार मूल भेदोके मिलाने पर बत्तीस आभिनिबोधिक ज्ञानके भेद और उतने ही उनके आवरणोके भी भेद होते है ।
आभिनिवोधिक ज्ञानके ये भेद चार, चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीस होते है । ये ज्ञान वारह प्रकारके पदार्थोंको विपय करते हैं । वे है वहु, बहुविध, क्षित्र, अनिसृत, अनुक्त और ध्रुव, तथा इनके प्रतिपक्षी - एक, एकविध, चिर, निसृत, उक्त अध्रुव । अत उक्त चौवीस भेदोको छैसे गुणा करने पर आभिनिवोधिकज्ञानके एकसौ चवालीस भेद होते है । उक्त अट्ठाईस भेदोको छैसे गुणा करने पर १६८ भेद होते है । और उक्त बत्तीस भेदोको छैसे गुणा करने पर १९२ भेद होते है । और उक्त चौवीस, अट्ठाईस और वत्तीस भेदोको १२ से गुणा करने पर आभिनिवोधिकज्ञानके दोसो अट्ठासी, तीनसी छत्तीस और तोनसो चौरासी भेद होते है । जितने ज्ञानके भेद है उतने ही उसके आवरण के भेद है । अत आभिनिवोधिकज्ञानावरणीयकर्मके भेदोको बतलाते हुए सूत्रकारने कहा है- 'इस प्रकार आभिनिवोधिकज्ञानावरणीयकर्मके चार, चौबीस, अट्ठाईस, वत्तीस, भड - तालीस, एकसौ चवालीस एकसी अडसठ, एकसी बानवे, दोसो अठासी, तीन सो छत्तीस, और तमसो चौरासी भेद होते है ||३५||
श्रुतज्ञानावरणीयकर्मकी प्रकृतियां बतलाते हुए कहा है — कि जितने अक्षर और अक्षरसयोग है उतनी श्रुतज्ञानावरणीयकर्मकी प्रकृतियाँ है || ४५ ॥
आशय यह है कि एक एक अक्षरसे श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति होती है, अत जितने अक्षर है उतने ही श्रुतज्ञान है । तेतीस व्यञ्जन, नौ स्वर अलग अलग ह्रस्व, दीर्घ और प्लुतके भेद से सत्ताईस और चार अयोगवाह – जिह्वामूलीय, उपध्मानीय, अनुस्वार और विसर्ग इस तरह चौंसठ मूल अक्षर है । इनके सयोगी अक्षरोको लानेके लिए सूत्रकारने एक 'गणित-गाथा' दी है—
,
सजोगावरणट्ठ चउर्साट्ठि थावए दुवे रासी । अण्णोष्णसमभासो रूवूण णिद्दिसे गणिद ॥४६॥
अर्थात् सयोगावरणोको लानेके लिए चौसठस ख्याप्रमाण दो राशि स्थापित करो - एक एकसे चौसठ तक और दूसरी उसके नीचे चौसठसे एक तक । दोनोको परस्परमें गुणा करके जो लब्ध आवे उसमेंसे एक कम करनेपर कुल सयुक्ता - क्षरोका प्रमाण होता है । इसके स्पष्टीकरण के लिये सूत्र ४६ की धवलाटीका देखना चाहिये ।
उसी श्रुतज्ञानावरणीय कर्मके वीस भेद बतलानेके लिये सूत्रकारने एक गाथासूत्र दिया है ।
९